आज कल मैं सोशल मीडिया पर देख रहा हूँ कि एक अभियान चला हुआ है। हैशटैग नो टू फ्री। इसमें बात की जा रही है लेखकों के आजीविका की। लेखक और उसकी आजीविका पर हमेशा एक सवाल उत्पन्न हुआ है कि क्या लेखक सिर्फ लिख कर अपनी रोटी कमा सकता है। और वो भी इस समाज में, जहाँ ये सुनने को मिलता है कि "अच्छा लेखक हो, वैसे क्या करते हो?"
ये सवाल हर लेखक को उत्पीड़ित कर देता है। वैसे मैंने देखा कि कुछ दिन पहले मुंशी प्रेमचंद जी के फटे हुए जूते की बहुत बात चल रही थी।
मुंशी प्रेमचन्द जी अपनी धर्मपत्नी के साथ। |
मुंशी प्रेमचन्द जी, जिनको क़लम का सिपाही, क़लम का देवता और साहित्य सम्राट कहा गया, और भी जाने कौन-कौन सी उपाधि दी गई। उन्हें नहीं दी गई तो रोटी। कितने अभाव में जीवन व्यतीत किए। कुछ लोग कहते हैं कि वो प्रकाशक रहे, फिल्मों के लिए लिखा , ज़मीनदार भी थे, और भी काम किए तो उन्हें कोई असुविधा नहीं हुई। लेकिन फिर ये पत्नी के साथ फटे जुटे का क्या अर्थ?
ख़ैर जो भी हो, उनके बाद अदम गोंडवी को इलाज का इतना अभाव रहा। वही गोंडवी जिन्होंने साहित्य को ऐसी ऐसी रचनाएँ दी जो समाज के मुंह पर तमाचा था, ऐसी कई रचनाएँ उन्होंने रची जो समाज को उसका मुंह दिखाने के लिए काफी था। "साहित्य समाज का आईना होता है", गोंडवी जी ने खूब दिखाया। इसके लिए उन्हें समाज से अलग किया गया। यहाँ तक कि उन्हें अपने शहर को छोड़ने पर मजबूर किया गया।
इन्होंने साहित्य को ख़ूब दिया, सबकुछ दिया और साहित्य और साहित्य प्रेमियों ने इन्हे क्या दिया? खून की उल्टियां, इलाज का आभार, गरीबी, लाचारी?
निराला खून की उल्टी करते रहे लेकिन साहित्य और लोग ये कहते रहे कि उन्होंने अपने साहित्य को बेचा नहीं, साहित्य की सेवा की। ये उनका अपना चयन किया हुआ रस्ता था।
नहीं, ये हमारा चयन है, साहित्य प्रेमियों की हार है। हमने उनसे उनकी रचनाएं ली, और बदले में उन्हें दिया गरीबी, लाचारी और आजीविका का आभार। हमने उन्हें छोड़ दिया उनके हालात पर। जबकि ये हमारी ज़िम्मेदारी थी कि हम उनकी सुध ले, खबर ले, जिसे इतना सम्मान और प्रतिष्ठा मिला वो पैसों के अभाव को सहता रहा। ऐसा क्यों?
आज भी देखा मैंने,,,सन्तोष आनन्द जी। इतने बड़े लेखक, रचनाकार रहें। 1974 और 1982 में उन्हें दो बार बेस्ट लीरिक्स के लिए "फिल्म फेयर अवार्ड" से सम्मानित किया गया। और 2016 में यश भारती अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। लेकिन जब उनके बेटे की मृत्यु हो गई तो फिर वो विलुप्त हो गए। कोई पूछने वाला नहीं था। ग़रीबी में वो कराहते रहे।
संतोष आनन्द जी और नेहा कक्कड़। |
मैं शुक्रगुजार हुँ सोनी टेलीविज़न टीवी चैनल का, जो उन्हें देखा, ढुंढ कर निकला और सम्मान दिया। मैंने देखा कि उन्होंने कितनी मासूमियत से 5 लाख रुपए लेने मना कर दिया जब नेहा कक्कड़ ने उन्हें देने कि कोशिश की। उन्हें कहा कि वो काम करना चाहते हैं।
वो पैसे उन्होंने अपनी पोती के लिए स्वीकार भी किया जब नेहा ने रोते हुए कहा। एक पिता अपने लिए नहीं अपने बच्चों के लिए मजबूर होता है, ये तो दादा जी थे।
ऐसे और भी बहुत गुमनाम ज़िन्दगी है जिन्होंने बहुत सारी रचनाएँ रची, साहित्य को समृद्ध बनाया लेकिन साहित्य प्रेमियों ने उन्हें कुछ ना समझा और बेचारी, लाचारी और गरीबी में धकेले रखा।
आज कल दिव्य प्रकाश दुबे ने एक मुहिम चलाई हैशटैग नो टू फ्री। एक लेखक जब लिखता है तो सोचता है कि पहले कोई ऐसा काम करूं जिससे आजीविका मिलती रहे, रोटी मिलती रहे। लेखन से पहले उस काम की प्राथमिकता रखता है जो वो सिर्फ रोटी के लिए करता है। शायद उसे अगर रोटी अपनी लेखनी से मिल जाए तो वो प्राथमिकता लेखन को ही देगा और समझेगा और वो सारा समय इसमें देकर और बेहतर रचनाएँ रचेंगा भी।
इसमें आज कल के नई वाली हिन्दी के लेखकों ने जोर शोर से हिस्सा लिया। और भी बहुत सारे लेखकों ने अपनी अपनी बातें रखीं।
कुछ कहते हैं कि यदि लेखक अपनी रचनाओं से पैसे कमाना चाहता है तो ज़रूर उसने अपनी रचना की कीमत लगाई होगी। साहित्य की कोई कीमत नहीं। साहित्य तो समाज का आईना है।
आईए आपको तीन साहित्यकारों की बातें पढ़ाता हूँ जो उन्होंने अपनी फेसबुक वॉल पर शेयर करते हुए बताया कि साहित्य के साथ लेखक क्यों "हैशटैग नो टू फ्री" का अभियान चला रहे हैं। ये इतना ज़रूरी क्यों है।
वो तीन साहित्यकार हैं।
१. दिव्य प्रकाश दुबे
२. निलोत्पल मृणाल
३. सत्य व्यास
निम्न लेख दिव्य प्रकाश दुबे जी के फेसबुक वॉल से।
दिव्य प्रकाश दुबे जी |
बात बहुत आसान है. आप कराइए लिटरेचर फेस्ट, आप साहित्य को बढ़ावा दीजिये कोई दिक्कत नहीं है. अच्छी बात है. आप टेंट लगवा रहे हैं, हॉल बुक कर रहे हैं. अच्छा वाला ऑडियो सिस्टम लगा रहे हैं, खाना खिला रहे हैं, होटल करा रहे हैं और लेखक को देने के लिए पैसा नहीं है तो ऐसी सेवा मत करिए.
ये लड़ाई केवल मेरी नहीं है. आने वाली पौध हमसे पूछेगी कि क्या हमने ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की थी जिसमें कोई केवल लिखकर आराम से गुज़र बसर कर पाए तो हम क्या जवाब देंगे?
हमेशा क्यों ऐसा हो कि कोई बेमन से नौकरी करके एक थका हुआ तन और मन लेकर किताब लिखने बैठे और उसको साधना माने. हमें थके हुए पुराने तरीकों को बदलना ही पड़ेगा न।
हिन्दी की दुनिया में एक मजाक चलता है, “अच्छा आप लिखते हैं, लेकिन करते क्या हैं?”
इस भद्दे मज़ाक से अब हिन्दी को मुक्त हो जाना चाहिए.
आप कहीं आने जाने में में दो दिन लगा रहे हैं. उन दो दिनों की कीमत मिलनी ही चाहिए, हर किसी के समय की एक कीमत है और उसका पैसा मिलना हक है आपका !
ये बात मैं अपनी पीढ़ी से ज्यादा, आने वाले लेखकों से कहना चाहता हूँ। किसी भी आयोजक से पैसा मांगने में हिचकिचाओ मत।
#NoToFree
बिगाड़ के डर से क्या ईमान की बात न करोगे , प्रेमचंद की ये पंक्तियाँ मौके बेमौके हिन्दी के बहुत लोग चिपकाते रहे हैं लेकिन अब बात रुपये की है तो बहुत से लेखक लगने वाले लोग चुप रहेंगे।
नयी पीढ़ी को इसी मानसिकता से अपने आप को आज़ाद करना है। हिचकिचाओ मत, बिन्दास पैसा मांगो।
#NoToFree
निम्न लेख निलोत्पल मृणाल जी के फेसबुक वॉल से।
निलोत्पल मृणाल जी |
"हिन्दी के लेखक की आजीविका" ये आपके लिये कोई मुद्दा नहीं,क्योंकि आप लिखते जरूर हैं...पर केवल लेखक नहीं हैं।
अपनी सारी प्रगतिशीलता, उदारता, महानता, परमार्थ हृदय,आत्मा की शांती,मन के संतोष,मनुष्यता को संजीवन देने वाले विचारधारा और आपके अकाट्य तार्किक क्षमता से परिपूर्ण होने के बावजूद आप ठीक इस वक़्त अपने पेट खातिर कहीं न कहीं नौकरी बजा रहे होंगे। महीने का वेतन मिल जायेगा, निवेश का मुनाफा मिल जायेगा और इस तरह "मैं बेचने के लिये नहीं लिखता हूँ, लिख के कमाना पाप है" ये कहने का हक़ भी।
इसलिये जब शाम/रात आप जब मेरा ये पोस्ट देखेंगे तो गुस्से से भर जायेंगे। एक लंबी साँस छोड़ हम पर मुच मुच की आवाज निकाल हिन्दी के लिये चिंता करते हुए अजीब सी मुस्कान लिये चाय की चुस्की लेंगे और साथी से हाथ सोफ़ा पर टेढ़ा रख कमर लिटा के घोलटने टाईप बैठ के कहेंगे " इन सालों ने खत्म कर दिया। बिकाऊ बना दिया।बाज़ार बना दिया। कुछ दिन हैं, मिट जायेंगे साले।"
आपका साथी भी कमा के आया होगा,नौकरी से आया होगा।वो भी मुच्च्च करेगा और हँस के कहेगा" हाँ गायब हो जायेंगे साले। रचना में भी तो कुछ नहीं। बेच ले रहे।"
ये सब जानते हैं क्यों होगा? क्योंकि आप बस लेखक नहीं हैं, हां आपने किताब लिखी है,लिखेंगे या लिख लिया।
एक बार बस लेखक हो के देखिये। एक कमजोर ही लिखने वाला लेखक सही...फ़िर आपको बिना बताये हम समझा सकेंगे कि " हिन्दी में आजीविका कितना बड़ा मुद्दा है?"
संभव है आप महान रचते हैं पर यकिन मानिए कि आप भाग्यशाली हैं कि "आप लेखक नहीं हैं और मेरे पोस्ट पर आँख मूंद गुस्से में दाँत पीसते वक़्त भी आप कहीं नौकरी बजा रहे हैं।" जय हो।
आप कह सकते हैं "तुम भी कर लो कहीं नौकरी?"
हम कहेंगे "नहीं करेंगे, सिर्फ लिखेंगे, हिन्दी में।"
और ये कहते ही हमारी पीढ़ी आधा जंग जीत लेगी। आधा बाकि है, आप असहमति देते रहिये, हमें समाधान देना है, परिपाटी बदलनी है। जय हो।
निम्न लेख सत्य व्यास जी के फेसबुक वॉल से।
सत्य व्यास जी |
Divya Prakash Dubey ने आज एक मुहिम चलायी #NotForFree.
देर से देख पाया। देर से देख पाने का कारण ही इस मुहिम का कारण भी है। दिन भर नौकरी की आपाधापी और काम की प्राथमिकता में यह देख भी नहीं पाया।
यही बात सोचने वाली है। यही मर्म मुहिम के पीछे भी है। लेखक यह दोहरा भार ढोते हुए थक जाता है। समारोह से लौट आने पर उस शहर के प्रशंसक कहते हैं कि 'सर आप आने की खबर भी नहीं करते।'
सही कहते हैं। मैं किसी कार्यक्रम की तिथि भी काफी पहले से बता नहीं पाता। क्योकि जाने से पहले तक मुझे इस बात का खुद पता नहीं होता कि छुट्टियाँ स्वीकृत होंगी या नहीं।
यह भी समझें कि अक्सर छुट्टियाँ नहीं मिलने की स्थिति में भी आना पड़ता है। क्योंकि सहमति दे दी है। यह कार्यालयीय माहौल तो खराब करता ही है साथ ही व्यक्तिगत विकास में भी अवरोधक ही होता है।
इस ही स्थिति में लेखक चाहता है कि वह ऐसी पारिस्थितिकी बनाएं जहां उसे नौ से नौ (नौ से पांच अब नहीं रहा) का काम अगर करना ही है तो वह लेखन से हो और उपार्जन भी वहीं से आये।
सादर...
सत्य व्यास
#NotForFree
और भी ऐसी हजारों पोस्ट लिखी जा रही हैं जो फेसबुक के लेखक हैं। और इसके विरोध में भी बहुत सारे लेख लिखे जा रहे हैं। ख़ैर, सब के अपने अपने विचार हैं। सभी का स्वागत है लेकिन सभी को इसपर एक बार गहरा चिंतन करना चाहिए और जो बेहतर हो वहीं करे।
ek dum sahi,
ReplyDeleteiss soch se nikalna hoga 👍👍👍👍👍
Thank you for your precious words.
DeleteJi usi soach pr ye likhne ki koshish ki hai.🙏🌹
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