'https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> src='https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> पुस्तक समीक्षा : डार्क हॉर्स - एक अनकही दास्तां...

 



किताब :- "डार्क हॉर्स - एक अनकही दास्ताँ..."

लेखक:- नीलोत्पल मृणाल 

प्रकाशक: हिन्द युग्म 

201 बी, पॉकेट ए, मयूर विहार फ़ेस-2, दिल्ली-110091

पहला संस्करण: 2015 में शब्दारंभ द्वारा, हिन्द युग्म द्वारा 2017 में प्रकाशित।

ISBN: 978-93-86850591



नीलोत्पल मृणाल
 

बहुत दिन से रीडिंग लिस्ट में ई किताब था। आज भोरे-सबेरे से पढ़ना शुरू किए और दिनभर घर का छूट-मुट काम करते हुए अभी रात के ग्यारह बज के दस मिनट पर ख़तम किए हैं।

तो सोचे कि समीक्षा लिखने का एगो नया प्रयास करते हैं और इसी किताब के भाषा को प्रयोग में ले आते हैं।


असल में इस उपन्यास का मुख्य केंद्र का नायक सन्तोष रहा है और लगभग लगभग मनोहर भी। असल में दोनों ही इस कहानी के मुख्य किरदार ही लगते हैं, गुरु और राय साहब भी उतने ही सलीके से बराबरी लेते हैं। कौन है इस कहानी का डार्क हॉर्स, कैसे बना है और असल में क्या है डार्क हॉर्स ये समझने के लिए आपको किताब पढ़ना होगा।


किताब के और भी सपोर्टिंग नायक लोगों और कहानी के बारे में बताएंगे लेकिन पहले इसके लेखक के बारे में बताते चलते हैं। क्योंकि मुझे लगता है कि कुछ भी पढ़ने से पहले उसको लिखने वाले को पढ़ना चाहिए तो इससे ये पता चलता है कि लिखते समय लेखक की क्या मनोदशा रही होगी।



नीलोत्पल मृणाल 




साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित नीलोत्पल मृणाल 21 वीं सदी की नई पीढ़ी के सर्वाधिक लोकप्रिय लेखकों में से एक हैं, जिनमें कलम के साथ साथ राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर जमीनी रूप से लड़ने का तेवर भी हैं। इसीलिए इनके लेखन में भी सामाजिक विषमताएँ, विडंबनाएँ और आपसी संघर्ष बहुत स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। लेखन के अलावा लोकगायन और कविताई में बराबर गति रखने वाले नीलोत्पल इन दिनों कवि-सम्मेलनों का भी एक चर्चित चेहरा हैं। अब तक प्रकाशित इनके दोनों उपन्यास 'डार्क हॉर्स' और 'औघड़' दैनिक जागरण की हिंदी बेस्टसेलर सूची में कई बार स्थान बना चुके हैं। 



किताब का पहला हिस्सा - किताब जहाँ से शुरू होती है।


अभी सुबह के पाँच ही बजे थे चिड़ियाँ चूँ-चूँ कर रही थीं। हल्का-हल्का धुंधलापन छितरा हुआ था। विनायक बाबू जल्दी-जल्दी बदन पर सरसों का तेल घसे, बाल्टी और लोटा लिए घर के ठीक सामने आँगनबाड़ी केंद्र के हाते वाले चापानल पर पहुँच गए। वहाँ पहले से पड़ोस का मंगनू दतुवन कर रहा था। विनायक बाबू ने बाल्टी रखते ही कहा, "तनी नलवा चलाऽव तऽ मंगनू , झट से नहा लें। निकलना है।" 


तभी अचानक खेत की तरफ सैर पर निकले ठाकुर जी, जो विनायक सिन्हा के ही स्कूल में साथी टीचर थे, की नजर विनायक जी पर पड़ी। 

"एतना बिहाने-बिहाने असनान-धयान हो रहा है, कहाँ का जतरा है मास्टर साब?" खैनी रगड़ते हुए ठाकुर जी ने पूछा । 


विनायक बाबू तब तक चार लोटा पानी डाल चुके थे । गमछा से पीठ पोंछते हुए बोले, "हाँ, आज तनी संतोष दिल्ली जा रहा है, वही स्टेशन छोड़ने जाना है, साढ़े दस का ही ट्रेन है। विक्रमशिला।" 

"अभी ई भोरे भोरे दिल्ली?" ठाकुर जी ने बड़े कौतूहल से पूछा। 

विनायक बाबू ने गीली लुंगी बदलते हुए कहा, "हाँ बी.ए. कर लिया। यहीं भागलपुर टीएनबी कॉलेज से कराए। अब बोला एम.ए. पीएच.डी. का डिग्री जमा करके का होगा ई जुग में! सो दिल्ली जाते हैं, आईएएस का तैयारी करेंगे।

जेतना दिन में लोग एम० ए० करेगा,मन लगाई हौंक के पढ़ दिया तो ओतना दिन में आईएसे बन जाएगा।

~किताब से


नीलोत्पल मृणाल पंकज त्रिपाठी जी के साथ



निलोत्पल अपनी किताब की भूमिका में ही कह देते हैं कि भैय्या हम कउनो साहित्य नहीं रच रहे हैं और न ही अपनी कल्पनाओं से कुछो भी उधार लिए हैं। जईसे देखे बुझे हैं ऊहे लिख रहे हैं। लेकिन आप देखेंगे कि इसके लिए उनको युवा साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला है। माने नीलोत्पल जी इसको साहित्य समझे तभी तो पुरस्कार भी लिए।

 सिविल सेवा छात्रों की जो मनोदशा मुखर्जीनगर दिल्ली में रहती है और उन्होंने जो देखा और महसूस किया वो लिख दिया है। 

 

आईए, भूमिका का थोड़ा हिस्सा आपको यहाँ नीचे पढ़ाते हैं, पढ़िए।


 संभवत: जिस उम्र में आदमी के पास सबसे अधिक ऊर्जा रहती है, कुछ करने का पुरजोर उत्साह होता है और दुनियाँ को देखने-समझने की सबसे ज्यादा जिज्ञासा होती है, मैंने अपने जीवन का वह सबसे चमकदार दौर आईएएस की तैयारी के लिए मुखर्जीनगर में गुजार दिया। लिहाजा, यह तो तय था कि मैंने यहाँ की दुनियाँ, तैयारी के ताने-बाने, यहाँ की जिंदगी को नजदीक से देखा और बड़ी बारीकी से समझने की कोशिश भी की। शायद यही कारण रहा होगा कि मैंने अपने पहले उपन्यास में यहीं की जिंदगी को पन्नों पर उतारना सही समझा। 

 

मैं किसी और के कहने से पहले अपनी ओर से ही ये दावा करता हूँ कि मैंने इस उपन्यास के रूप में कोई साहित्य नहीं रचा है, बल्कि सच कहता हूँ कि मैंने तो साहित्य सराहना और आलोचना से मुक्त , बिना किसी शास्त्रीय कसौटी की चिंता किए, बस जो आँखों से देखा, अनुभव से सुना, उसे ही गूंथकर एक कहानी बुन डाली है । 


इसे लिखने में मैंने अपनी कल्पना से कुछ भी उधार नहीं लिया। जो कुछ अनुभव जमा कर रखा था, उसी से उपन्यास रच डाला। अब यह पाठकों को ही तय करना है कि इसमें साहित्य कितना है और एक जिंदगी की सच्ची कहानी कितनी है। उपन्यास की भाषा को लेकर कहना चाहूँगा कि कहीं-कहीं कुछ शब्द आपको अखर सकते हैं और भाषाई शुचिता के पहरेदार नाक भौं भी सिकोड़ सकते हैं, पर मैंने भाषा के संदर्भ में सत्य को चुना।




आजकल लोग जैसे इंग्लिश की किताबें पढ़ते हैं और इंग्लिश की लोकप्रियता बढ़ी है उसका पूरा बराबरी करने के लिए हिन्दी के लेखक भी अपनी पूरी बेचैनी को काग़ज़ पर उड़ेलने लगे हैं और इस बात का ज़िक्र किताब में भी बड़ा सलीके से किया भी गया है। जिस तरह से चेतन भगत की लोकप्रियता बढ़ी है उसका जिक्र भी किरदारों से कराया गया है।

बल्कि ये सच भी है कि आजकल लोग थोड़ा शो ऑफ मारने के लिए भी हाथ में इंग्लिश और फेमस नॉवेल को ले कर अईसे चलने लगे हैं कि लोगों को इसी से बुझाता है कि बड़ा अंग्रेजी जाने वाला और सज्जन आदमी हैं।


बत्रा पर जमघट लगाए किरदारों में। एक किरदार ऐसे इंग्लिश के बारे में बतियाता है जैसे इंग्लिशे सब कुछ है और हिन्दी मध्यम से तैयारी करने वाले इसी लिए पीछे रह जाते हैं। जबकि वो ख़ुद भी हिन्दी मीडियम का छात्र रहा है। अक्सर ऐसा होता है कि कुछ लड़का सब जैसे अपना समाज छोड़ता है तो नया रंग में रंगाने के लिए नया बात अपनाने में लग जाता है और अपना समाज को इस तरह नीचे दिखाने लगता है जैसे ये नाली का गन्दा पानी हो और इसी वजह से उसका विकास रुक गया था।


हाँ हाँ यही है नीलोत्पल मृणाल 


आपको ये किताब क्यों पढ़नी चाहिए?


इस पूरी कहानी में जम के हो हल्ला मचवाए हैं। जैसे छात्र लोगों को जो प्रॉबलम परेशानी आता है सब देखा दिए। कब केतना बवाल और भौकाल रहता है सब। घर पर लोग को केतना इंतज़ार होता है केतना उम्मीद होता है और कैसे कैसे लड़का सब ठगा जाता है ईहो दिखाए। अऊर त अऊर , ईहो दिखाए है कि ख़ाली टैलेंट ही होने से आईएएस नहीं हो जाता है तनी मनी भाग्य भी ठीक होना चाहिए और ये भी दिखाए कि अगर लोग ठान के बैठ जाए ता आपन हाथ के लकीर भी बदल सकता है।


तो ई सब भौकाल और बवाल और निराशापन, जोश, जुनुन, तनी मनी प्यार , पढ़ाई में व्यापार, सब कुछ का मिलान इसमें आप पढ़ सकते हैं। तो पढ़ लीजिए। जल्दी से। 




क्या बुरा लग सकता है?


बुरा त कुछ नहीं लेकिन तनी सोचने लायक है कि ई सच में आईएएस का नायक है कि कावनो साउथ फिलिम के नायक। पूरा कहानी में सन्तोष संघर्ष करते रहता है और किताब के आख़िर एक दु गो पन्ना में अचानक ही से इसको विजय लिख दिया गया। 

हो सकता था कि तनी पहले से ही संतोष को थोड़ा अईसे दिखाया जाता कि हाँ भाई, है इसमें कुछ, जईसे गुरु को दिखाया है। और फिर दु गो पन्ना में विजय बना के समेट दिया जाता तो लगता कि हाँ, ई था। लेकिन डार्क हॉर्स का जो परिभाषा दिया गया है, तो लगता भी है कि हो सकता है।

लेकिन हो सकता था कि कुछ और तरीका से विजयी बनाते। 



ख़ैर, कुछ भी कमी बेसी हो , है भौकाल, दिखाया है दोस्ती का भौकाल, तैयारी का भौकाल, बेइज्जती को संभालने का और हार के भी नहीं हारने का जिद, एक बेर तो पढ़कर ही पता चलेगा आपको की केतना भौकाल किताब है। काहे कि उस सब बात लिखा गया है जवना सवाल के जवाब हम सब खोजते है आईएएस और आईपीएस के तैयारी करे वाला विद्यार्थी में।


आईए, आपको हम अपना पसंदीदा कुछ लाइन इस किताब का पढ़ाते हैं, जवन हमको खूब भौकाल और बवाल लगा। नीचे पढ़ीए।



जेतना दिन में लोग एम० ए० करेगा,मन लगाई हौंक के पढ़ दिया तो ओतना दिन में आईएसे बन जाएगा।


‘डार्क हॉर्स ‘ मतलब रेस में दौड़ता ऐसा घोड़ा जिसपर किसी ने भी दाँव नहीं लगाया हो, जिससे किसी ने जीतने की उम्मीद ना की हो और वही घोड़ा सबको पीछे छोड़कर निकल जाये। 


जिंदगी आदमी को दौड़ने के लिए कई रास्ते देती है, जरूरी नहीं है कि सब एक ही रास्ते दौड़ें। जरूरत है कि कोई एक रास्ता चुन लो और उस ट्रैक पर दौड़ पड़ो। रुको नहीं...दौड़ते रहो। क्या पता तुम किस दौड़ के डार्क हॉर्स साबित हो जाओ।


इस देश ने जितना माक्र्स को पढ़ा, समझा और अपने में गूँथा-ठूँसा, उतना अगर गाँधीजी को पढ़ा-समझा होता तो शायद पीढ़ियों का सबक कुछ और होता।


हम सबके अन्दर एक डार्क हॉर्स बैठा है। ज़रूरत है तो उसे दौड़ाए रखने की जिजीविषा की।


ज़रूरी नहीं जो सेलेक्ट हो वो करेक्ट भी हो।





नोट: इस ब्लॉग में संलग्न सभी तस्वीरें नीलोत्पल मृणाल जी की फेसबुक पेज से ली गई हैं।

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