इस तहरीर को जब लिखने लगा हुँ और इस बात पर मेरी भी पूरी हांमी है तो मैं सोचने लगा हूँ कि मुझे सबसे पहली बार मोहब्बत कब हुई थी?
वैसे तो यदि लोगों की बातें करूं तो कहा जाता है कि सबसे पहला प्रेम माँ होती है, लेकिन मुझे मेरी माँ की कोई भी प्रेम वाली प्यारी बातें याद नहीं आती। जब मुझे कुछ भी होश नहीं था। मैं बिल्कुल बच्चा था तो मेरी माँ ने मुझे बहुत प्यार किया। ये बात मेरी दादी ने बताया। हर माँ अपने बच्चों पर ख़ुब सारा प्यार बरसाती हैं।
दादी बताती हैं कि मैं किस तरह के नखरे करता था। रोता था, खाना नहीं खाता था तो माँ हर तरह की कोशिश करती थी। आधी रातों में जागती थी। मुझे बहुत सारी कहानियाँ, किस्से, बातें सुना कर खाना खिलाती थी। लेकिन मुझे जब उनका प्यार दिखा तो हमेशा उनके मोटे-मोटे हाथों से चपत खाते हुए। मैं जब स्कूल नहीं जाता तो माँ के हाथों मेरी पिटाई हो जाती थी और मैं कहता - "ऐसी भी माँ होती है भला? और भाग जाता था।
दादी बता रही थी कि मुझे पढ़ाई के लिए मारने-पीटने के बाद वह खुद भी रोती थी। खैर, अब भी उनका प्यार वैसे ही है। समय बदल गया है। नौकरी के लिए अब घर से बाहर ही रहता हूँ। लेकिन हाँ, अब जब भी घर आता हूँ तो उनका सारा प्यार, रसोईघर की प्याली और प्लेटें बयान करती हैं। मुंह फुलाई पूरियाँ तो मुझे देखकर जलती है। कोई सुनने वाला हो तो सुने कि पुड़ियाँ कहती हैं.. "हम तुम्हारी कारण से ही तेलों में जलाए गए हैं।"
अभी भी जब माँ को मुझ पर प्यार आता है तो 1 - 2 चपत लगा ही देती हैं।
जब प्यार मोहब्बत के बार-बार होने की बात हो रही है तो मुझे याद है एक लड़की, स्कूल के सातवीं कक्षा की। सातवीं कक्षा की वो सांवली सी लड़की, जिसके लिए मैं हर रोज की पूरी पूरी क्लास करने लगा था। कुछ हुआ था। सातवीं कक्षा में अचानक से मेरे अंदर कुछ बदलाव होने लगा था। उसे देखता था तो घबरा जाता था, उससे बातें करना चाहता था लेकिन डर से कांप जाता था।
आज भी याद है कि मेरे दोस्तों ने ही इसे प्यार कहा था और स्कूल ख़त्म होते ही रास्ते में जब हम सभी उसका इंतजार कर रहे थे, उसके आते ही सभी ने मिलकर मुझे उसके सामने धकेल दिया। मैं कुछ नहीं बोला और वो हँसते हुए आगे बढ़ गई। नवीं कक्षा में दोनों का स्कूल बदल गया। वह चली गई। वह जाते जाते एक आवारा लड़के को कक्षा में बैठकर पूरी कक्षा पढ़ना सिखा गई थी। अब उसके जाने के बाद भी मैं आधी कक्षा से पानी पीने के बहाने से नहीं निकलता हूँ।
मैं |
नए स्कूल में और भी बदलाव आए नए नए दोस्त बने। चेहरे पर कुछ इस तरह के बदलाव आए के चेहरे की सफाई करवानी पड़ने लगी। उन्हीं दिनों कक्षा की एक प्यारी शिक्षिका ने साफ और थोड़े क्रीम लगे चेहरे को छूकर ऐसी मुस्कान से मोहित किया कि फिर वही एहसास जागने लगा जो सातवीं कक्षा की लड़की को देखकर जागे थे।
लेकिन इसमें ये फ़र्क था कि इस प्रेम को विवाह तक पहुँचाए जाने का ख़्याल आने लगा। गलती को बढ़ाया गया और मैडम के ही केबिन में अपनी कॉपी चेक कराते कराते शादी का पूछ लिया।
प्रेम यहाँ भी था लेकिन उस प्यार को मैडम ने बहुत प्यार से नकार दिया और बताया कि पहले पढ़ाई पूरी करो फिर बात करेंगे। इस प्यार ने सिखाया कि सब्र करो, धीरज रखो। किसी भी काम के लिए जल्दबाजी अच्छी बात नहीं।
कॉलेज के दिनों में 1 दिन मैं सफर पर था। कुछ मिसकम्युनिकेशन के कारण मैं जंगलों में अकेला छूट गया। बाकी साथी आगे चले गए। फिर बहुत कुछ हुआ। वो अलग ही कहानी है, वो फिर कभी सुनाऊंगा।
जो भी हो अकेले आगे बढ़ा तो बस्ती के पहले घर में रोशनी दिखी और दरवाजे पर मैंने दस्तक दिया। बड़े प्यार से घर में स्वागत हुआ। पूरी ख़िदमत के साथ अगले दिन रास्ते के खाने के साथ मुझे रवाना किया गया। उस घर में सिर्फ एक औरत अपने छोटे बेटे के साथ रहती थी। पति मर चुका था। बेटे के प्यार में माँ ने दूसरी शादी नहीं की थी। उसी बस्ती के स्कूल की शिक्षिका थी।
मुझे मेरे नवीं कक्षा की शिक्षिका याद आई और वही प्रेम मैंने इस स्त्री के लिए भी महसूस किया। मैंने यहाँ अपने प्रेम को ज़ाहिर करना सही नहीं समझा। ये प्रेम, समय की मजबूरी, वासना की चाहत और बेसहारे का फायदा उठाने का प्रतीक होता तो यह प्रेम ख़ामोश ही रहा। लेकिन इस प्रेम ने मानवता का पाठ सिखाया। सिखाया कि प्रेम के और भी रूप हैं। प्रेम असल में अपने भीतर के मानवता का खोज है।
जब पहली नौकरी पर लगा तो एक साथ तीन लड़कियों से प्यार हुआ और एक लड़के से भी। हाँ जी, एक लड़के से भी। बताते हैं। धीरज रखिए। स्कूल की शिक्षिका के प्रेम ने यही तो सिखाया था।
जीवन में पहली बार ऐसा था कि एक अलग ही माहौल में जीना था। मेरी पहली नौकरी थी तो बहुत कुछ सीखना था मुझे। जिसने भी सिखाया मुझे उससे प्यार हुआ या शायद जिससे भी मुझे प्यार हुआ उसने हमेशा मुझे कुछ ना कुछ सिखाया। 1 साल एक ही दफ़्तर में काम किया और जब प्यार बहुत अधिक बढ़ गया तो दफ़्तर छोड़ दिया। उम्र के हिसाब से प्रेम बार-बार होता है। लेकिन प्रेम की गंभीरता बढ़ती जाती है।
यहाँ प्रेम गंभीर हुआ। प्रेम, सोच, समाज और विवाह से ऊपर। प्रेम, काम, वासना और जरूरत से अलग। यहाँ प्रेम, बस प्रेम था।
दफ़्तर की पहली लड़की के प्रेम ने सिखाया या शायद इसी कारण से प्रेम हुआ कि वो बहुत शांत स्वभाव की थी। उसके स्वभाव, उसकी उदारिता ने प्रेम करना सिखाया। उसके स्वभाव से तो कभी महसूस नहीं हुआ कि वह एक देवी है या मनुष्य।
उसके प्रेम ने उसे देवी बनाया और मुझे लगा कि एक आम मनुष्य देवियों से सिर्फ प्रेम करता है। मनुष्य और देवियों का कोई जोड़ नहीं।
दफ्तर की दूसरी लड़की कुछ समय बाद दोस्त बनी थी। उसके प्रेम ने इंतजार करना सिखाया या शायद उसने मेरा इतना इंतजार किया कि इस आदर में ये प्रेम उत्पन्न हुआ और शायद इस इंतजार की आदत ने ही प्रेम को बस प्रेम रहने दिया।
प्रेम में पड़ा व्यक्ति घंटों प्रतीक्षा कर सकता है और इस पीड़ा को वह सह सकता है, लेकिन इसकी कभी व्याख्या नहीं कर सकता।
दफ़्तर की तीसरी लड़की से प्रेम हुआ इसलिए कि उसने एक चौथे लड़के को जी जान से प्रेम किया। यदि दोनों के प्रेम की कारण से मुझे दोनों से प्रेम नहीं होता तो मेरे शरीर में हृदय नहीं कोई पत्थर होता है।
इन दोनों के प्रेम ने मुझे कविताएँ दीं, कहानियाँ दीं। क्योंकि मुझे इन दोनों से प्रेम हुआ था। प्रेम में प्रेमी-प्रेमिका को पाने की जिद करना प्रेम नहीं। बल्कि प्रेमी-प्रेमिका के खुशी के लिए खुद की खुशी का त्यागना ही प्रेम है और यह बातें मैंने इन दोनों प्रेमी युगल से सीखा था। तीसरे लड़की और चौथे लड़के से। जो कभी एक दूसरे को पाने के लिए नहीं जिए। कभी समाज के बनाए गए बंधन में बंधकर प्रेम को पूर्ण बनाने की कोशिश नहीं की। उन्होंने किया तो बस प्रेम। प्रेम के लिए प्रेम। प्रेम के भाव में प्रेम। प्रेम के प्रतिशोध में प्रेम। प्रेम की आड़ में प्रेम। प्रेम की पूर्णता के लिए प्रेम। बस प्रेम, प्रेम और प्रेम।
अजीब है कि प्रेम में सब कुछ त्याग दिया जाता है तो बचती है सिर्फ कुछ खट्टी मीठी यादें और इन यादों की बनी कविताएँ और कहानियाँ और अवसाद।
~"अहमद"
mind-blowing 👌👍👍 nice article 👌👌👌 prem, prem & prem
ReplyDeleteअरे सर, बहुत धन्यवाद। आप मेरी सभी आर्टिकल्स को बहुत ध्यान और पसंद से पढ़ते हैं। ऋणी रहूंगा।
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