'https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> src='https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> दुष्यन्त कुमार :- मैं मर जाऊँगा लेकिन मैं कल फिर जन्म लूँगा



01 सितम्बर 1933 को राजपुर नवाडा गाँव, जिला बिजनोर, उत्तर प्रदेश, भारत में जन्में दुष्यन्त कुमार जी का नाम हिन्दी साहित्य में बहुत आदर से लिया जाता है। इनकी कृतियाँ और रचनाएँ विश्व प्रसिद्ध हैं।


सूर्य का स्वागत, आवाज़ों के घेरे, जलते हुए वन का वसन्त (सभी कविता संग्रह)। साये में धूप (ग़ज़ल संग्रह)। एक कण्ठ विषपायी (काव्य-नाटिका) इनकी प्रमुख कृतियाँ रही हैं।



30 दिसम्बर 1975 को इनका भोपाल में निधन हुआ था। इलाहबाद विश्व विद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत कुछ दिन आकाशवाणी भोपाल में असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे बाद में प्रोड्यूसर पद पर ज्वाइन करना था लेकिन तभी हिन्दी साहित्याकाश का यह सूर्य अस्त हो गया। 

इलाहबाद में कमलेश्वर, मार्कण्डेय और दुष्यन्त की दोस्ती बहुत लोकप्रिय थी। वास्तविक जीवन में दुष्यन्त बहुत, सहज और मनमौजी व्यक्ति थे। कथाकार कमलेश्वर बाद में दुष्यन्त के समधी भी हुए। दुष्यन्त का पूरा नाम दुष्यन्त कुमार त्यागी था। प्रारम्भ में दुष्यन्त कुमार परदेशी के नाम से लेखन करते थे।


महाकवि दुष्यंत ने अपने दोस्त कमलेश्वर जी से कहा था..



"ये दो कौड़ी के नौकरी-परस्त लोग...दोस्त चिंता मत कर हम भूखे मर जाएंगे पर लोग हमें याद करेंगे ... इन्हें नही ! क्या है इनके पास ... हमारे पास कविता भी है और कहानी भी...हमारी मुक्ति लेखन में ही है।"


जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील (तरक्कीपसंद) शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था । हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था । उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे । इस समय सिर्फ़ 42 वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की । 


दुष्यन्त जी की कुछ रचनाएँ।


"धर्म"


तेज़ी से एक दर्द

मन में जागा

मैंने पी लिया,

छोटी सी एक ख़ुशी

अधरों में आई

मैंने उसको फैला दिया,

मुझको सन्तोष हुआ

और लगा –-

हर छोटे को

बड़ा करना धर्म है ।



सूना घर


 सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।

पहले तो लगा कि अब आईं तुम, आकर

अब हँसी की लहरें काँपी दीवारों पर

खिड़कियाँ खुलीं अब लिये किसी आनन को।


पर कोई आया गया न कोई बोला

खुद मैंने ही घर का दरवाजा खोला

आदतवश आवाजें दीं सूनेपन को।


फिर घर की खामोशी भर आई मन में

चूड़ियाँ खनकती नहीं कहीं आँगन में

उच्छ्वास छोड़कर ताका शून्य गगन को।


पूरा घर अँधियारा, गुमसुम साए हैं

कमरे के कोने पास खिसक आए हैं

सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।



सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन 


सूरज जब

किरणों के बीज-रत्न

धरती के प्रांगण में

बोकर

हारा-थका

स्वेद-युक्त

रक्त-वदन

सिन्धु के किनारे

निज थकन मिटाने को

नए गीत पाने को

आया,

तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया,

ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप

और शान्त हो रहा।


लज्जा से अरुण हुई

तरुण दिशाओं ने

आवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यह!

क्रोध से हिमालय के वंश-वर्त्तियों ने

मुख-लाल कुछ उठाया

फिर मौन सिर झुकाया

ज्यों – 'क्या मतलब?'

एक बार सहमी

ले कम्पन, रोमांच वायु

फिर गति से बही

जैसे कुछ नहीं हुआ!


मैं तटस्थ था, लेकिन

ईश्वर की शपथ!

सूरज के साथ

हृदय डूब गया मेरा।

अनगिन क्षणों तक

स्तब्ध खड़ा रहा वहीं

क्षुब्ध हृदय लिए।

औ' मैं स्वयं डूबने को था

स्वयं डूब जाता मैं

यदि मुझको विश्वास यह न होता –


'मैं कल फिर देखूँगा यही सूर्य

ज्योति-किरणों से भरा-पूरा

धरती के उर्वर-अनुर्वर प्रांगण को

जोतता-बोता हुआ,

हँसता, ख़ुश होता हुआ।'


ईश्वर की शपथ!

इस अँधेरे में

उसी सूरज के दर्शन के लिए

जी रहा हूँ मैं

कल से अब तक!


निदा फ़ाज़ली उनके बारे में लिखते हैं....


"दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है. यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है। "



दुष्यंत कुमार जी ने कहा था....


मैं मर जाऊँगा 

लेकिन मैं कल फिर जन्म लूँगा 

कल फिर आऊंगा...


 🙏🙏


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