"सुकून"
मैं अब नहीं लिखता, अब मैं लिखना ही नहीं चाहता क्यों कि अब मैं वहीं कर रहा हूँ जो मैं करना नहीं चाहता!
मैं पहले पीली सवारी का सवार हुआ करता था जो एक महेलनुमा मकान में जाकर रुकती थी फ़िर मैं जो चाहता था वहीं करता था, जहाँ जाना हो, नहीं जाना हो, कुछ करना हो नहीं करना हो, खाना हो, घूमना हो, पढ़ना हो, लिखना हो..... वगैरह!
अब जो मेरी एक दोपहिया काली सवारी है वो मुझे महलनुमा मकान तक लेकर जाती तो है लेकिन मैं एक बहुत छोटे कमरे में ही सिमट कर रह जाता हूँ, कब दोपहर कब शाम हुवी, कितनी धूप निकली, हवा कितनी तेज़ चली, कितने धूल उड़ें, कुछ भी पता नहीं चलता, और जब वो कमरा मुझे बाहर ढकेलता हैं तब तक शाम हो चुकी रहती है!
जब मैं अपनी सवारी पर सवार हो कर निकलता हूँ तब आधा से ज़्यादा शहर सो रहा होता है और मेरे महलनुमा मकान तक पहुँचते पहुँचते आधे से ज्यादा शहर जाग जाता है,
जब मैं सुबह को अपने काम पर शहर से गुज़र रहा होता हूँ तब कुछ इंसान और मशीने चलती हुई दिखती हैं जिनमें सफार्इ कर्मी और उनकी मशीनें ही अधिक रहती हैं कुछ लोग मेरी ही तरह अपनी अपनी दोपहिया की सवारी पर सवार दिखते हैं और कुछ लोग अपने वर्तमान से लड़ते हुए ठेले ढकेल रहे होते हैं!
मैं इस महेलनूमा मकान के एक छोटे से कमरे में वही करता हूँ जो मैं करना नहीं चाहता, मैं कभी भी नहीं चाहता कि इस छोटे से कमरे में बैठ कर 20-22" के कॉप्यूटर स्क्रीन पर अपनी निगाहें लगाए पूरा दिन निकाल दूँ, लेकिन मुझे करनी पड़ती है!
इस पूरे चक्र में यदि मुझे कुछ अच्छा लगता है तो वह शाम को वापसी में झील के किनारे कुछ देर बैठना होता है, जब मैं किनारे पर बैठता हूँ तो अपना पैर झील को सौंप देता हूँ जिसका पानी हवा के झोंके के साथ आकर मेरे पैरों को चूम लेते हैं और फिर जाते हुए मेरे पूरे दिन की थकान, माथे की शिकन, और सारी परेशानियां साथ ले जाते हैं, फ़िर वही बैठे जब ढलते सूरज का मनोरम दृश्य आँखों में समाता है तो दिल ख़ुश हो जाता है ऐसे की जैसे किसी बच्चे को उसकी सबसे सुकून देने वाला कुछ मिल गया हो,
ढलता सूरज हमेशा ही बताता है कि ज़िन्दगी में भले कितनी कड़ी दोपहरी आ जाए लेकिन कुछ वक़्त के बाद ख़ूबसूरत शाम भी आती है और इस शाम की सी मनोरम दृश्य ज़िन्दगी में आता ही है!
एक शाम को इसी मनोरम दृश्य में मैं खोया था कि किसी ने मेरे कंधे पर अपना हाथ फेरा और कहा कि परेशान होना और ख़ुश होना मनुष्यों पर निर्भर करता है, उस बूढ़े व्यक्ति की बातें सुन कर दिल तो चाहा की अपनी सारी परेशानियाँ उसे बता कर उसे भी परेशान कर दूँ लेकिन फिर मैं ये समय भी परेशानियों में नहीं बिताना चाहता था इस लिए चुप रहा, कुछ न कहा!
उस बूढ़े व्यक्ति ने कहा....अगर तुम अपनी ज़िन्दगी खुशहाल बनाना चाहते हो तो अपने आस पास की मौजूद हर चीज़ से प्यार करो, चाहे वह इंसान हो या कुछ और.... वह व्यक्ति आगे बढ़ गया!
मैंने अपना दिन पहले की ही तरह शुरू किया,
पहले मैंने अपनी सवारी को प्यार किया, बहुत प्यार, कुछ देर तक उसे देखता रहा फिर उसपर सवार होकर उसका माथा चूम लिया!
मेरी सवारी आगे बढ़ी तो मौसम और रास्ता दोनों सुकून देता था, अपने महलनुमा मकान के कमरे में पहुँचा तो अपने कम्प्यूटर स्क्रीन को भी इसी तरह देखता रहा और उसे चूम लिया,
अब मैं ऐसे ही करता हूँ, अपने आस पास मौजूद हर किसी से प्यार, ये अलग बात है कि मेरे आप पास इंसान बहुत कम हैं, अब मुझे अपनी ज़िन्दगी में बहुत सुकून है, क्यों कि मेरे साथ जिसका सबसे ज्यादा वक़्त गुजरता है मैं उनसे खूब प्यार करता हूँ, लोग अब मुझे पागल कहते हैं लेकिन मुझे अब सुकून है!
~"अहमद"
मैं अब नहीं लिखता, अब मैं लिखना ही नहीं चाहता क्यों कि अब मैं वहीं कर रहा हूँ जो मैं करना नहीं चाहता!
मैं पहले पीली सवारी का सवार हुआ करता था जो एक महेलनुमा मकान में जाकर रुकती थी फ़िर मैं जो चाहता था वहीं करता था, जहाँ जाना हो, नहीं जाना हो, कुछ करना हो नहीं करना हो, खाना हो, घूमना हो, पढ़ना हो, लिखना हो..... वगैरह!
अब जो मेरी एक दोपहिया काली सवारी है वो मुझे महलनुमा मकान तक लेकर जाती तो है लेकिन मैं एक बहुत छोटे कमरे में ही सिमट कर रह जाता हूँ, कब दोपहर कब शाम हुवी, कितनी धूप निकली, हवा कितनी तेज़ चली, कितने धूल उड़ें, कुछ भी पता नहीं चलता, और जब वो कमरा मुझे बाहर ढकेलता हैं तब तक शाम हो चुकी रहती है!
जब मैं अपनी सवारी पर सवार हो कर निकलता हूँ तब आधा से ज़्यादा शहर सो रहा होता है और मेरे महलनुमा मकान तक पहुँचते पहुँचते आधे से ज्यादा शहर जाग जाता है,
जब मैं सुबह को अपने काम पर शहर से गुज़र रहा होता हूँ तब कुछ इंसान और मशीने चलती हुई दिखती हैं जिनमें सफार्इ कर्मी और उनकी मशीनें ही अधिक रहती हैं कुछ लोग मेरी ही तरह अपनी अपनी दोपहिया की सवारी पर सवार दिखते हैं और कुछ लोग अपने वर्तमान से लड़ते हुए ठेले ढकेल रहे होते हैं!
मैं इस महेलनूमा मकान के एक छोटे से कमरे में वही करता हूँ जो मैं करना नहीं चाहता, मैं कभी भी नहीं चाहता कि इस छोटे से कमरे में बैठ कर 20-22" के कॉप्यूटर स्क्रीन पर अपनी निगाहें लगाए पूरा दिन निकाल दूँ, लेकिन मुझे करनी पड़ती है!
इस पूरे चक्र में यदि मुझे कुछ अच्छा लगता है तो वह शाम को वापसी में झील के किनारे कुछ देर बैठना होता है, जब मैं किनारे पर बैठता हूँ तो अपना पैर झील को सौंप देता हूँ जिसका पानी हवा के झोंके के साथ आकर मेरे पैरों को चूम लेते हैं और फिर जाते हुए मेरे पूरे दिन की थकान, माथे की शिकन, और सारी परेशानियां साथ ले जाते हैं, फ़िर वही बैठे जब ढलते सूरज का मनोरम दृश्य आँखों में समाता है तो दिल ख़ुश हो जाता है ऐसे की जैसे किसी बच्चे को उसकी सबसे सुकून देने वाला कुछ मिल गया हो,
ढलता सूरज हमेशा ही बताता है कि ज़िन्दगी में भले कितनी कड़ी दोपहरी आ जाए लेकिन कुछ वक़्त के बाद ख़ूबसूरत शाम भी आती है और इस शाम की सी मनोरम दृश्य ज़िन्दगी में आता ही है!
एक शाम को इसी मनोरम दृश्य में मैं खोया था कि किसी ने मेरे कंधे पर अपना हाथ फेरा और कहा कि परेशान होना और ख़ुश होना मनुष्यों पर निर्भर करता है, उस बूढ़े व्यक्ति की बातें सुन कर दिल तो चाहा की अपनी सारी परेशानियाँ उसे बता कर उसे भी परेशान कर दूँ लेकिन फिर मैं ये समय भी परेशानियों में नहीं बिताना चाहता था इस लिए चुप रहा, कुछ न कहा!
उस बूढ़े व्यक्ति ने कहा....अगर तुम अपनी ज़िन्दगी खुशहाल बनाना चाहते हो तो अपने आस पास की मौजूद हर चीज़ से प्यार करो, चाहे वह इंसान हो या कुछ और.... वह व्यक्ति आगे बढ़ गया!
मैंने अपना दिन पहले की ही तरह शुरू किया,
पहले मैंने अपनी सवारी को प्यार किया, बहुत प्यार, कुछ देर तक उसे देखता रहा फिर उसपर सवार होकर उसका माथा चूम लिया!
मेरी सवारी आगे बढ़ी तो मौसम और रास्ता दोनों सुकून देता था, अपने महलनुमा मकान के कमरे में पहुँचा तो अपने कम्प्यूटर स्क्रीन को भी इसी तरह देखता रहा और उसे चूम लिया,
अब मैं ऐसे ही करता हूँ, अपने आस पास मौजूद हर किसी से प्यार, ये अलग बात है कि मेरे आप पास इंसान बहुत कम हैं, अब मुझे अपनी ज़िन्दगी में बहुत सुकून है, क्यों कि मेरे साथ जिसका सबसे ज्यादा वक़्त गुजरता है मैं उनसे खूब प्यार करता हूँ, लोग अब मुझे पागल कहते हैं लेकिन मुझे अब सुकून है!
~"अहमद"
Nice article 👍👍👍👍👏👏👏
ReplyDeleteThank you so much Bhai 🙏
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