'https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> src='https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> अँगूठों की वंदनवारें : फ़ेसबुक का लाइक एक जादुई बटन है!

अँगूठों की वंदनवारें

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फ़ेसबुक का लाइक एक जादुई बटन है! 


द्रोण को एकलव्य के अँगूठे से भय लगता था। निश्चित ही वे फ़ेसबुक के इस अँगुष्ठ की महिमा से परिचित नहीं रहे होंगे। अगर होते तो एकलव्य का अँगूठा उन्हें अत्यंत निरापद जान पड़ता। यह बटन बहुत मायावी है और अनेक मरीचिकाएँ रचता है।


मैंने कोई ग्यारह साल पहले अपना फ़ेसबुक खाता बनाया था (वह अकाउंट अब नष्ट हो गया), तब वो ब्लॉगिंग का स्वर्ण-युग था। उस समय मैं जिन लोगों के ब्लॉग पढ़ता था, वे फ़ेसबुक पर मौजूद थे और वे ही मेरे पहले मित्र बने। पहली पोस्ट प्रोफ़ाइल पिक्चर अपडेट की थी, जिस पर तीन-चार लाइक्स आए थे। उस ज़माने में सौ से पार लाइक्स कदाचित् ही किसी को मिलते थे। तब यहाँ सब नवान्कुर थे और कौतूहल से भरे थे। किशोरावस्था जैसी सरलता सबों में थी। कोई बड़ा-छोटा नहीं था, कोई मित्र-शत्रु नहीं था, सभी समान थे और एक आभासी-आश्चर्यलोक का हिस्सा थे। तब वास्तव में बहुतों को मालूम नहीं था कि यह फ़ेसबुक कितना आगे तक जाएगा, जैसे ऑर्कुट वैसे ही फ़ेसबुक, तब यही सामान्यतया माना जाता था।


एकदम आरम्भ में जो मन में आया, वह फ़ेसबुक पर लिख देता था। इधर मन में तरंग उठी नहीं कि उधर फ़ेसबुक पर लगाई नहीं। एक पंक्ति का कोई कथन, या कोई चुटकुला, या कोई तस्वीर, या हाल में देखी किसी फ़िल्म पर एक पंक्ति का आप्तवाक्य। दिन में आठ-दस पोस्टें, हर पोस्ट पर आठ-दस लाइक्स। वह मेरे विकासक्रम की पहली सीढ़ी थी, बहुतेरे मित्र आज भी उसी दौर में हैं- वह उनकी मौज है। हर व्यक्ति सोशल-मीडिया को अपनी-अपनी तरह से आज़माता है। और अपने हैंडल्स और प्रोफ़ाइल्स को किस तरह से इस्तेमाल करना है, यह भी हरेक व्यक्ति समय के साथ ही सीखता है।


वर्ष 2013 में मैंने इंदौर में एक फ़्लैट ख़रीदा तो उसकी तस्वीर फ़ेसबुक पर लगाई। पहली बार 100 लाइक मिले। मैं चकित हुआ। उसी साल पुत्र-जन्म की सूचना ने 200 लाइक्स की सीमा लाँघी। वर्ष 2015 में फ़िल्म दिल से के एक गीत की समीक्षा यों ही मौज में आकर लिख दी और लिखकर सो रहा, किन्तु वह आश्चर्यजनक रूप से लोकप्रिय साबित हुई। उसने मुझे पहली बार 300 लाइक्स के पार पहुँचाया। साथ ही वह पोस्ट पच्चीस-पचास जन ने शेयर भी की, जिसने नए मित्रता-अनुरोधों का ताँता लगाया। मित्र-सूची हज़ार के पार उसी के बाद पहुँची। पाँच हज़ार मित्रों का खाता पूरा होने में अलबत्ता अभी समय लगना था और फ़ॉलोअर्स की संख्या तो अभी शुरू ही हुई थी।


दिसंबर 2015 में मैंने एक महीने के लिए फ़ेसबुक-खाता बंद कर दिया और पूरे समय ओरहन पमुक का नॉवल पढ़ता रहा और ख़ैय्याम का संगीत सुनता रहा। लौटा तो एक छोटी-सी कविता लिखी- फ़ारूख़ शेख़ जैसा लड़का हो, दीप्ति नवल जैसी लड़की। वो शाम मुझको भली प्रकार याद है। मन में मुलायम-भावना थी और सोच रहा था कि आज कुछ भली-रोमानी चीज़ लिखी जावे, जिसको सब चाव से पढ़ें। सो वह कविता लिख डाली और लिखकर भूल गया। मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही, जब दोबारा लॉग-इन करने पर पाया कि यह पोस्ट- उस ज़माने के मानदण्डों के अनुरूप- लगभग वायरल हो चुकी है। इसने मुझे पहली बार 1000 लाइक्स के पार पहुँचाया। 


जब आपको अपनी किसी पोस्ट पर पहली बार हज़ार लाइक्स मिलते हैं, तो इसका रोमांच आपको भीतर ही भीतर मथने लगता है। क्योंकि यह भी तो आप ही थे ना जो किसी ज़माने में रेलगाड़ियों में बिजली के लट्‌टू की रौशनी में डायरियाँ लिखते थे, जिन्हें पढ़ने वाला कोई ना होता था! जो अख़बारों के रविवारीय पन्ने के लिए डाक से कविताएँ भेजते थे और फिर महीनों तक उनके छपने का इंतज़ार करते थे! भारत में हमारा मध्यवर्गीय जीवन इतनी हताशाओं और मायूसियों के बीच गुज़रता है कि छोटी-छोटी ख़ुशियाँ ही हमें पुलक से भर देती हैं : कि देखो मेरी कविता अख़बार में छपी, देखो मुझे दिल्ली से कविता पढ़ने का बुलावा आया, देखो मैं पहली बार हवाई जहाज़ में बैठा, देखो मैंने बम्बई की सैर की! 


ठीक वैसा ही रोमांच फ़ेसबुक पर पहली बार हज़ार लाइक्स पाकर होता है। सहसा आपको अनुभव होता है कि आप अनुगूँजों के एक जादुई संसार में तैर रहे हैं, जहाँ आपकी कही गई बात हज़ार दिशाओं से लौटकर आपके पास आ रही है। कि आख़िरकार इस दुनिया में आपकी कोई जगह है, वजूद है। सबकुछ इतना अकारथ नहीं है, जितना कि अपने एकांत के अंधकार में आपको लगता था। आपके पास आपके पाठक हैं।


और तब जाकर आपके मन के किसी कोने में जाने-अनजाने यह चलने लगता है कि इस पोस्ट पर कितने लाइक्स मिलेंगे? या इस जैसी ही उस पोस्ट पर इतने लाइक्स मिले थे, क्या इस पर उससे भी ज़्यादा ना मिलेंगे? और अति तो ये है कि आप यह भी सोचने लग जाते हैं कि पूरी दुनिया साँसें रोककर आपकी पोस्ट की प्रतीक्षा कर रही है, कि आप लिखें और वे लाइक्स की पुष्पवर्षा करें, और उन्हें यों मायूस करने का आपको कोई नैतिक अधिकार नहीं है! 


प्यार पर हज़ार लाइक्स मिलते हैं। तक़रार पर दो हज़ार!


और इसीलिए, वो वक़्त भी आया, जब हमने तीखे सियासी मसअलों पर क़लम चलाई और अब हज़ार लाइक्स हर पोस्ट पर मिलने लगे। यदा-कदा लाइक्स की संख्या दो-ढाई हज़ार के पार जाने लगी! एक बार वह चार हज़ार के पार भी कूद गई। शुरू में यह जितना आश्चर्यवत लगता था, अब मालूम होता है आख़िर यह इतना भी मुश्किल नहीं है। क्योंकि पहले और अब के फ़ेसबुक में बहुत अंतर आ गया है। फ़ेसबुक में व्यतिक्रम तो ख़ैर उभर ही आए हैं, एक भेददृष्टि भी आई है। सबसे बढ़कर, लोकवृत्त का तीखा ध्रुवीकरण हो गया है। खेमे बँट गए हैं। आप एक खेमा पकड़ लीजिए और उसके गुण गाइए। विजय के क्षण में जयघोष कीजिये, पराजय के क्षण में बचाव कीजिये, सफ़ाइयाँ दीजिये, किन्तु-परन्तु कीजिये। निष्ठावानों का एक समूह आपकी आरती उतारेगा, दूसरा आपको गालियाँ देगा- यह एक अनवरत खेल है। किन्तु इसकी हानि यह है कि वैसा लेखक तब अपने पाठकों का बंधक बनकर रह जाता है और उसके पाठक जो सुनना चाहते हैं, वही बोलने की फ़िक्र में वो स्वयं को हल्का तौलने लगता है। 


सुशोभित


इन पंक्तियों का लेखक जब भी इस दुष्चक्र में फँसा, बहुत सचेत होकर उसने स्वयम् को उससे दूर कर लिया। फ़ेसबुक-लाइक्स की मरीचिका को समझने से भी इसमें मदद ही मिली।


क्योंकि, आप कभी नहीं जान सकते, कौन-सी पोस्ट चल निकलेगी, कौन-सी नहीं चलेगी- यह अनेक संयोगों और अवसरों और एल्गोरिद्‌म सम्बंधी फ़ेसबुक-नीतियों पर निर्भर करता है। लेकिन आप यह हमेशा जान सकते हैं कि आपने कब अच्छा लिखा है और कब बुरा लिखा है। अच्छा लिखा है, फिर सौ-पचास से ज़्यादा ना पढ़ें तो भी चिन्ता नहीं। और अगर बढ़िया लिखकर हज़ार डेढ़ हज़ार लाइक्स किसी को मिल जावें तो कहना ही क्या। मैं फ़ेसबुक-लाइक्स की प्रकृति के साथ जब-तब प्रयोग भी करता रहा। राजनैतिक लेखन के शिखर दिनों में लगाई गई जो पोस्ट ढाई-तीन हज़ार लाइक्स तक पहुँच गई, उसे फिर उस ज्वार के उतार पर कुछ समय बाद फिर लगाया तो पाया कि यह तीन-चार सौ लाइक्स पर सिमट गई है। पोस्ट वही है किन्तु प्रतिसाद बदल गया। तो क्या पाठक पढ़कर पसंद करते हैं? या जिसने लिखा है, उसका नाम देखकर पसंद का बटन दबा देते हैं कि यह हमारे खेमे का व्यक्ति है? उधर सैलेब्रिटीज़ तो अगर स्माइल की इमोजी भी बना दें तो हज़ारों लाइक्स की वर्षा हो जाती है, वहीं मैंने अत्यंत उत्तम पोस्टें फ़ेसबुक पर ऐसी देखी हैं, जिन्हें पचास से अधिक लाइक्स नहीं मिले। इसीलिए कहता हूँ, यह एक मरीचिका है- इसके प्रति सचेत रहना चाहिए।


कुछ दिनों पहले समान्तर सिनेमा के अभिनेताओं पर एक छोटी-सी शृंखला लिखी, हर लेख ने हज़ार लाइक्स कमाए। इसी कड़ी में पंकज त्रिपाठी पर भी लिखना हुआ। लिखने के छह दिन बाद सहसा पाया कि पंकज ने उस पोस्ट पर कमेंट किया है। शायद उन्होंने कहीं शेयर भी किया होगा, क्योंकि सहसा उस पर लाइक्स बढ़ने लगे। आख़िर में वह पोस्ट 22 हज़ार लाइक्स पर जाकर रुकी, जिसने अपने मूल-स्वरूप में हज़ार लाइक्स पाए थे। वो पोस्ट किसी और ने लिखी होती तो सत्तर-अस्सी लाइक्स में भी सिमट सकती थी या किसी सितारे ने शेयर कर दिया होता तो लाख के पार भी जा सकती थी। तब मानदण्ड क्या हुआ और निकष क्या कहलाया? यों भी इंस्टाग्राम-पोस्टरों और फ़ेसबुक-रील्स के इस ज़माने में लाइक्स की संख्या एक सीमा के बाद अब अप्रासंगिक हो गई है।


यह वृत्तान्त लिखने का प्रयोजन यह है कि जिन मित्रों को अपनी पोस्ट पर अधिक लाइक्स नहीं मिलते, वे इससे चिन्तित ना हों। फ़ेसबुक पर आज जितने भी सूरमा हैं, उन सबों ने दस-ग्यारह साल पहले आठ-दस लाइक्स से शुरुआत की है, उन्होंने महत्वहीन और लगभग हास्यास्पद पोस्टें लिखी हैं और ऐसी-ऐसी तस्वीरें लगाई हैं, जिनके बारे में फ़ेसबुक-मेमरी के द्वारा याद दिलाए जाने पर वे किंचित लज्जारुण हो उठते हैं। साँख्यिकी का खेल यों भी मृगतृष्णा रचता है और संसार की समस्त सँख्याओं की तरह यह भी वैसी ही माया है। अगर श्रेष्ठ का कोई एक सुनिश्चित मानदण्ड होता तो आप फ़ेसबुक-लाइक्स से किसी व्यक्ति की प्रतिभा की ऊँचाई माप सकते थे, किन्तु वैसा है नहीं। 


तब श्रेयस्कर वही होगा कि अच्छे से अच्छा लेखन करने पर ध्यान देवें, ख़ूब शोध-मनन-परिश्रम करके लिखें, लेखन में न्याय और विवेक का समावेश हो, मेधा उज्ज्वल हो और गहरी अंतर्दृष्टि हो, लिखे पर अध्ययनशीलता की छाप हो। जिसको पढ़ना होगा, पढ़ लेगा। अगर बहुतों के मन को वह बात रुच गई तो वह पोस्ट चल निकलेगी। नहीं हुई तब भी वह अपना पाठक देर-सबेर खोज ही लेगी, भले वह एक या दो पाठक ही हों। नियति को वही मान्य होगा। जीवन के दूसरे क्षेत्रों की तरह इंटरनेट पर लोकप्रियता का अभ्यास भी मनुष्य को बड़ी निर्वैयक्तिकता के साथ ही करना चाहिए और- कवि सुमन के शब्दों में- "अँगूठों की वंदनवारें" यानी फ़ेसबुक-लाइक्स को किंचित दूरस्थ-निर्लिप्तता से ही निहारना चाहिए। अस्तु।


सुशोभित

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