'https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> src='https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> पुस्तक समीक्षा : ज़िन्दग़ी रेल सी

 


पुस्तक समीक्षा: ज़िन्दग़ी रेल सी

लेखक: पुरुषोत्तम कुमार

प्रकाशक: Notion Press Media Pvt Ltd

Language: ‎ Hindi

Paperback: ‎ 108 pages

ISBN‏: ‎ 978-1639578504


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गाँव, किसान, खेती, शिक्षा और दहेज प्रथा के साथ साथ घर से बाहर जाकर शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों के जीवन का बहुत ही संतोषजनक उल्लेखनीय उपन्यास " ज़िन्दग़ी रेल सी" को का सकते हैं। क्यों कि इस उपन्यास में बहुत ही अच्छे से इन सभी बातों का उल्लेख किया गया है।


रघु इस कहानी का मुख्य किरदार है जो अपने दो और दोस्तों के साथ पटना जा कर इंटर की परीक्षा की तैयारी के साथ साथ जेईई और आईआईटी की परीक्षा की तैयारी भी करते हैं। ये पढ़ना भी एक अलग अनुभव रहा कि किसको कैसे सफलता या निराशा मिलती है। छात्रों को दसवीं के बाद घर से बाहर रह कर पढ़ाई करने पर उनके ऊपर के दबाव और अभाव को भी बहुत अच्छे से दर्शाया है। 


जिस सपने, उम्मीद और आशा से छात्र अपना घर छोड़ते है उससे अधिक आशा उनके घर वालों को होती है कि शायद लड़का पढ़ जाए तो आगे की पीढ़ी ख़ूब तरक्की करें। भले ही उनको पढ़ने में गाँव में बाप अपनी ज़मीन बेच दे। 


एक गाँव में रहने वाले रघु के पिता अपने बेटे को शहर पटना भेजते हैं और उम्मीद लगते हैं। ख़ुद गाँव में महनत करते हैं। इस उपन्यास में ईमानदारी और बेईमानी के किरदार भी हैं और वो अपनी कर्मो की साझा भी पते हैं। ये पढ़ना भी आपको बहुत बेहतरीन लगेगा। 


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लेखक परिचय:


पुरुषोत्तम कुमार


पुरुषोत्तम कुमार बिहार राज्य के पटना जिले से है।पूरी तरह से ग्रामीण परिवेश में पले- बढ़े और बिहार बोर्ड के हिंदी माध्यम से इंटर की पढ़ाई पूरी करके वर्तमान में देहरादून के एक निजी विश्वविद्यालय से वास्तुकला में स्नातक की पढ़ाई कर रहे है।बतौर लेखक ये इनकी पहली पुस्तक हैं। 


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आपको ये किताब क्यों पढ़नी चाहिए?


 दोस्ती, प्यार और पढ़ाई के मेल जोल आपको खूब पसंद आ सकते हैं और साथ ही साथ गाँव में होने वाली बहुत बड़ी सामाजिक अश्लीलता और फूहड़ता को भी बहुत अच्छे से दर्शाया गया है जो बहुत ज़रूरी लगते हैं।


एक पिता अपने बेटे को पढ़ने और बेटी को ब्याहने के लिए क्या क्या जतन कर सकता है इसका भी प्रमाण इस उपन्यास में ख़ूब मिलता है। गाँव के परिवेश में कैसे एक पिता अपने बेटे के पढ़ाई के लिए भैंस बेच कर पैसे देता है तो वहीं अपनी बेटी के दहेज के लिए अपनी ज़मीन बेच देता है। 


ये कहानी बहुत साधारण हो कर भी आपके दिल पर एक छाप ज़रूर छोड़ जाती है। कोचिंग और ट्यूशन के संचालकों ने इसे व्यावसाय के रूप में ले लिया है तथा स्कूल से अधिक प्राइवेट कोचिंग और ट्यूशन में पढ़ने वाले बच्चों को अधिक समृद्ध समाज समझने लगा है इसे खूब दर्शाया गया है। जो बहुत सत्य भी है। 


कुल मिलाकर जब आप इस किताब को पढ़ेंगे तो आप गाँव के परिवेश की एक बहुत बेहतरीन लेकिन कटाक्ष करती हुई कहानी मिलेगी जो सामाजिक अश्लीलता और फूहड़ता के साथ बहुत ज़रूरी मुद्दों पर बात करती है।


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आपको किताब में क्या कमी लग सकती है?


किताब पढ़ते हुए इसमें आपको वर्तनी की त्रुटियां मिलती हैं और कहीं ना कहीं आपको समझ आता है कि लेखक की ये पहली किताब और पहला उपन्यास है। व्याकरण, और वर्तनी के साथ साथ वाक्यों से भी आपको पता चल जाता है कि लेखक अभी लिख रहें हैं।


इसका एक कारण ये भी हो सकता है कि लेखन और प्रकाशन दो अलग बात है और ये पुस्तक नोशन प्रेस से है और किसी प्रूप रीडर या आलोचक से इसकी एक बार ज़रूर जांच करवानी चाहिए थी। शायद इसी कमी के कारण से ये सभी कमियां दिखी हैं। बाक़ी कहानी आपको बांधे रखती है और पढ़ते हुए आप गाँव के परिवेश में ज़रूर खो सकते हैं।



इस किताब की कुछ पंक्तियाँ बहुत पसंद आयी...


• जो बच्चे पढ़ाई में कमज़ोर होते हैं, ट्यूशन उनके लिए था लकिन अब ट्यूशन का एक ऐसा प्रचलन चल गया है कि स्कूल की पढ़ाई से अधिक महत्व ट्यूशन को मिलने लगी है।

• कानून की बत्ती और सायरन रसूखदारों के दर पर आकर बुझ ही जाती है।

• एक किसान के लिए खेत में सिर्फ फसल नहीं उगती है बल्कि उसी खेत से बच्चों की कॉपी किताब, परिवार की दवाई और पत्नी की कानबाली भी उगती है और ढेर सारे सपने भी।

• हर सफ़र एक दिन गंतव्य पर पहुंच कर ख़त्म हो जाती है, चाहे वो रेल की हो या ज़िन्दगी की।

• दहेज समाजिक बुराई है, कोई अवॉर्ड थोड़ी है।

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