लेखन यानी क्या?
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हज़ार परिभाषाएँ हो सकती हैं, किन्तु लेखन का प्राथमिक-प्रयोजन एक ही है-
"मनुष्य के हृदय, आत्मा और अवचेतन में दबे-छुपे रहस्यों को उद्घाटित करना। उन्हें वृहत्तर-संसार के सामने रखना। और अपने लेखन से एक ऐसी अनुगूँज रचना, जो लौटकर कहती हो- हाँ, मेरे भीतर भी यही था, किन्तु लेखक, तुमने कह दिया!"
यह लेखन की बुनियादी शर्त भी है, प्रयोजन भी है और परिभाषा भी है। अगर किसी ने यह कर दिया, तो वह सफल लेखक है। नहीं कर पाया तो विफल लेखक है।
यह तो हुआ लेखन का बुनियादी गुण, इसके अलावा इसके कुछ अन्य गौण, समांतर, द्वितीयक या सांयोगिक गुण भी हैं, जैसे-
1. पाठकों की रुचियों को परिष्कृत करते हुए उनका मनोरंजन करना
2. रचनात्मकता, कल्पनाशीलता या आख्यानपरकता से पाठकों को रोमांचित करना
3. पाठकों में राजनैतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना जगाना, युगसत्य को पहचानना या युगधर्म को चिह्नित करना
4. पाठकों में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और साभ्यतिक परिप्रेक्ष्यों की समझ विकसित करना
5. पाठकों के सम्मुख नैतिक मानदण्डों का निर्धारण करना या अगर लेखक के मत में नीति के भिन्न मानदण्ड हैं तो प्रचलित-नैतिकता का पुनर्सीमन करने हुए पाठकों को नए मानकों को अंगीकार करने के लिए पुकारना
6. जिस भाषा में वह लिखता है, उस भाषा की सम्भावनाओं का दोहन करना, उसमें नए प्रतिमान रचना, अपनी भाषा को और सुंदर, महान और स्पृहणीय बनाना
7. जीवन और सृष्टि के विराट आश्चर्यों के सम्मुख पाठक को संवेदनशील, ग्रहणशील और विनम्र बनाना, आदि-इत्यादि।
और भी प्रयोजन हो सकते हैं किंतु अभी ये ही मुझे सूझे हैं।
तो हमने देखा कि लेखन का "1 मुख्य प्रयोजन" और "7 गौण प्रयोजन" हैं।
ये तो हुए गुण, प्रयोजन, लक्षण आदि। अब लेखन के प्रतिफल देख लीजिए-
1. हो सकता है लेखक को यश मिले या अपयश मिले
2. हो सकता है लेखक को लोकप्रियता मिले या उपेक्षा मिले
3. हो सकता है लेखक को धन मिले या नहीं मिले
4. हो सकता है लेखक को मान्यता मिले या नहीं मिले
आपने देखा कि जब हम लेखन के प्रयोजनों और गुणों की बात कर रहे थे तो हम निश्चित थे, किंतु जैसे ही हमने लेखन के प्रतिफलों की बात की तो हमने हर वाक्य को "हो सकता है" से आरम्भ किया, यानी अब बात निश्चयात्मक नहीं है। अब अनेकान्त आ गया। "स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति" की भावना बलवती हो गई। समीकरणों में सांयोगिकता का समावेश हो गया। क्योंकि अब बात लेखक के हाथ में नहीं है, पाठक के हाथ में है। पाठक किस चीज़ को कैसे ग्रहण करेगा, इस पर लेखक का कोई वश नहीं है, ना हो सकता है।
तब यह भी सम्भव है कि कि कोई लेखक उपरोक्त वर्णित आठों प्रतिमानों पर खरा सिद्ध होकर भी लोकप्रिय हो, यशस्वी हो, सम्मानित हो, और उसे इसके लिए यथेष्ट धन भी मिले- तब तो वह सौभाग्यशाली है। इससे अधिक किसी को क्या चाहिए।
या फिर यह सम्भव है कि वह लेखन के प्रतिमानों से समझौता करके धन कमा ले, लोकप्रिय हो जावे या अपने लिए मान-सम्मान जुटा ले। तब एक मनुष्य होने के नाते यह उसका अधिकार है। किंतु इतिहास जब उसका वस्तुनिष्ठ निर्णय करेगा तो इन मानदण्डों को अपने सामने रखकर ही करेगा।
एक तीसरी सम्भावना यह भी है कि लेखक आठों प्रतिमानों पर खरा हो किन्तु ना उसके पास धन हो, ना लोकप्रियता हो, ना मान्यता हो। तब आप कह सकते हैं कि भौतिक अर्थों में तो वह विफल है, अलबत्ता लेखन के मानदण्ड पर वह पूरी तरह से सफल हुआ है। अपना प्राथमिक-प्रयोजन उसने पूरा कर लिया, प्रतिफल फिर मिलें या ना मिलें।
अब यह निर्णय लेखक को करना है कि इन सभी समीकरणों में से उसे स्वयं को कहाँ पर देखना है, कैसे देखना है, उससे कितना संतुष्ट होना है। मनुष्य होने का अर्थ है निर्णय लेना। मनुष्य कभी निर्णयों से नहीं बच सकता। और वो जो निर्णय लेता है, उसी से उसकी चेतना का रूप निर्धारित होता है।
अगर कोई लेखक अपने लेखन के लिए धन की माँग या चाह रखता है तब यह भी उसका निजी निर्णय है- बशर्ते वह परिप्रेक्ष्यों को भुला ना दे। धन की कामना के लिए तो लेखक को क्षमा किया जा सकता है, किंतु लेखन के बुनियादी प्रयोजनों को भुला देने के लिए उसे क्षमा नहीं किया जा सकता। लेखक को यह पता होना ही चाहिए कि लेखन यानी क्या। वो जो कर रहा है, क्यों कर रहा है, किसलिए कर रहा है और कैसे कर पा रहा है।
इसमें यह अंतिम वाला बिंदु बहुत महत्वपूर्ण है- आख़िर लेखक लेखन कैसे कर पा रहा है। प्रतिभा- अगर लेखक में प्रतिभा है तो- एक दैवीय उपहार है। यह कहाँ से आती है और कैसे आती है- यह एक रहस्य है। उसने उस व्यक्ति को ही अपने प्रकटन के लिए क्यों चुना- यह भी अनुत्तरित है। इन अर्थों में लेखक एक रहस्यमयी शक्ति का निमित्त है, उसका माध्यम है।
लेखक सुशोभि अपनी किताब के साथ |
तब लेखक को यह भी मालूम होना चाहिए कि भले वो अपने लेखन से भौतिक सुखों या लौकिक मान्यताओं को भोग ले, किंतु चेतना की एक धारा उसके माध्यम से प्रवाहित हुई थी और वह उसका एक उपकरण भर था। जिस दिन यह धारा सूख रहेगी, उस दिन वह नदी के किनारे पर छूटी रेत भर रह जाएगा। इस परिप्रेक्ष्य को भुला देने का अधिकार किसी लेखक को नहीं।
वास्तव में लेखक के लिए लेखन वैसा ही है, जैसे वृक्ष के लिए फल। फल वृक्ष के अहोभाग्य की अभिव्यक्ति हैं। मण्डी में फल बिकते भी हैं, उनका आस्वाद भी भरपूर लिया जाता है, किंतु अंतत: हैं वह एक वृक्ष के भीतर उमड़ रहे उत्सव की अभिव्यंजना, इससे अधिक नहीं।
अरण्य में, निविड़ में, या निर्जन एकान्त में भी अगर उस वृक्ष पर फल लदेंगे तो उतने ही मीठे, उतने ही आत्मविभोर होंगे, जितने मण्डी में लाए गए फल होते हैं। किंतु अरण्य के फल पेड़ पर ही गल जावेंगे, धरती पर गिरकर मिट्टी में मिल जावेंगे, अधिक से अधिक पक्षी उन्हें जुठाकर छोड़ देंगे। कोई मनुज कभी जान नहीं सकेगा कि सुदूर वन-प्रान्तर में एक वृक्ष में फल लगे थे, उनमें रस था, बाज़ार में उस रस का मूल्य था, उससे अनेक जन जिह्वा का सुख पा सकते थे। ये तमाम बिंदु वृक्ष के फलत्व के प्रतिफल हैं। लेकिन उसके फलत्व का मूल प्रयोजन एक ही था- वृक्ष पर फलों का निष्प्रयोज्य लद जाना।
और इसके सिवा शेष जो कुछ है, वह केवल तर्क हैं, जिरहें हैं, उपयोगिता के सिद्धांत हैं, और लोक में यत्किंचित प्रासंगिक बने रहने के अवसर हैं!
नोट: लेखक सुशोभित जी के द्सुवारा ये फेसबुक पोस्ट उनकी अनुमति से लिया गया है. आप लेखक को फेसबुक पर यहाँ से फॉलो कर सकते हैं. FOLLOW ON FACEBOOK
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