वैद्यनाथ मिश्र (30 जून 1911 - 5 नवंबर 1998), जिन्हें उनके कलम नाम नागार्जुन से बेहतर जाना जाता है, एक हिंदी और मैथिली कवि थे, जिन्होंने कई उपन्यास, लघु कथाएँ, साहित्यिक आत्मकथाएँ और यात्रा वृतांत भी लिखे हैं, और उन्हें जनकवि के रूप में जाना जाता है- लोक कवि। उन्हें मैथिली में आधुनिकता का सबसे प्रमुख पात्र माना जाता है।
वैद्यनाथ मिश्र का जन्म 30 जून 1911 को भारत के बिहार के दरभंगा जिले के तरौनी गाँव में हुआ था, उन्होंने अपना अधिकांश दिन मधुबनी जिले, बिहार के अपनी माँ के गाँव सतलखा में बिताया था। बाद में वो बौद्ध धर्म में परिवर्तित हो गए और नागार्जुन नाम प्राप्त किया। जब वह केवल तीन वर्ष के थे, तब उनकी माँ की मृत्यु हो गई।
और उनके पिता से उनको समर्थन नहीं मिलने से युवा वैद्यनाथ अपने रिश्तेदारों के समर्थन और सहयोग से अपना जीवयापन किया और एक असाधारण छात्र होने के कारण उन्हें छात्रवृत्ति मिली।
जल्द ही वे संस्कृत, पाली और प्राकृत भाषाओं में कुशल हो गए, जो उन्होंने पहले स्थानीय और बाद में वाराणसी और कलकत्ता में सीखे, जहाँ उन्होंने अपनी पढ़ाई करते हुए अर्ध-रोजगार भी किया। इस बीच उन्होंने अपराजिता देवी से शादी कर ली, इस दंपति के छह बच्चे हैं।
उन्होंने आपातकाल की अवधि (1975-1977) से पहले जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी, और इसलिए आपातकाल अवधि के दौरान उन्हें ग्यारह महीने तक जेल में रखा गया था। वे लेनिनवादी-मार्क्सवादी विचारधारा से बहुत प्रभावित थे। यह एक कारण था कि उन्हें मुख्यधारा के राजनीतिक प्रतिष्ठानों से संरक्षण कभी नहीं मिला।
1998 में दरभंगा में 87 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
वैद्यनाथ मिश्र ( नागार्जुन ) |
नागार्जुन ने यह कविता आपातकाल के प्रतिवाद में लिखी थी।
ख़ूब तनी हो, ख़ूब अड़ी हो, ख़ूब लड़ी हो
प्रजातंत्र को कौन पूछता, तुम्हीं बड़ी हो
डर के मारे न्यायपालिका काँप गई है
वो बेचारी अगली गति-विधि भाँप गई है
देश बड़ा है, लोकतंत्र है सिक्का खोटा
तुम्हीं बड़ी हो, संविधान है तुम से छोटा
तुम से छोटा राष्ट्र हिन्द का, तुम्हीं बड़ी हो
खूब तनी हो,खूब अड़ी हो,खूब लड़ी हो
गांधी-नेहरू तुम से दोनों हुए उजागर
तुम्हें चाहते सारी दुनिया के नटनागर
रूस तुम्हें ताक़त देगा, अमरीका पैसा
तुम्हें पता है, किससे सौदा होगा कैसा
ब्रेझनेव के सिवा तुम्हारा नहीं सहारा
कौन सहेगा धौंस तुम्हारी, मान तुम्हारा
हल्दी. धनिया, मिर्च, प्याज सब तो लेती हो
याद करो औरों को तुम क्या-क्या देती हो
मौज, मज़ा, तिकड़म, खुदगर्जी, डाह, शरारत
बेईमानी, दगा, झूठ की चली तिजारत
मलका हो तुम ठगों-उचक्कों के गिरोह में
जिद्दी हो, बस, डूबी हो आकण्ठ मोह में
यह कमज़ोरी ही तुमको अब ले डूबेगी
आज नहीं तो कल सारी जनता ऊबेगी
लाभ-लोभ की पुतली हो, छलिया माई हो
मस्तानों की माँ हो, गुण्डों की धाई हो
सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है प्रबल पिटाई
सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है 'इन्द्रा' माई
बन्दूकें ही हुईं आज माध्यम शासन का
गोली ही पर्याय बन गई है राशन का
शिक्षा केन्द्र बनेंगे अब तो फौजी अड्डे
हुकुम चलाएँगे ताशों के तीन तिगड्डे
बेगम होगी, इर्द-गिर्द बस गूल्लू होंगे
मोर न होगा, हंस न होगा, उल्लू होंगे
नागार्जुन की और भी कविताएँ यहांँ नीचे पढ़ें।
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निराला
बाल झबरे, दृष्टि पैनी, फटी लुंगी नग्न तन
किन्तु अन्तर्दीप्त था आकाश-सा उन्मुक्त मन
उसे मरने दिया हमने, रह गया घुटकर पवन
अब भले ही याद में करते रहें सौ-सौ हवन ।
क्षीणबल गजराज अवहेलित रहा जग-भार बन
छाँह तक से सहमते थे शृंगालों के प्राण-मन
नहीं अंगीकार था तप-तेज को नकली नमन
कर दिया है रोग ने क्या खूब भव-बाधा शमन !
राख को दूषित करेंगे ढोंगियों के अश्रुकण
अस्थि-शेष-जुलूस का होगा उधर फिल्मीकरण
शादा के वक्ष पर खुर-से पड़े लक्ष्मी-चरण
शंखध्वनि में स्मारकों के द्रव्य का है अपहरण !
रहे तन्द्रा में निमीलित इन्द्र के सौ-सौ नयन
करें शासन के महाप्रभु क्षीरसागर में शयन
राजनीतिक अकड़ में जड़ ही रहा संसद-भवन
नेहरू को क्या हुआ, मुख से न फूटा वचन ?
क्षेपकों की बाढ़ आई, रो रहे हैं रत्न कण
देह बाकी नहीं है तो प्राण में होंगे न व्रण ?
तिमिर में रवि खो गया, दिन लुप्त है, बेसुध गगन
भारती सिर पीटती है, लुट गया है प्राणधन !
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