अशोक कुमार पांडे एक भारतीय, हिंदी कवि, कथा लेखक और इतिहासकार हैं। उनकी पुस्तकें बहुत सी साजिशों और स्रोतों की शोधपरख का नतीज़ा है। कश्मीर नामा, इतिहास और समकल, कश्मीर और कश्मीरी पंडित और उसने गांधी को क्यों मारा शामिल हैं। इतनी शोधपरख पुस्तकें लिखने के बाद भी ख़ुद को एक छात्र ही समझते हैं।
पांडे का जन्म 24 जनवरी 1975 को उत्तर प्रदेश के मऊ जिले के एक गाँव सुग्गी चौरी में हुआ था। उन्होंने अपनी प्राथमिक पढ़ाई देवरिया, उत्तर प्रदेश से पूरी की और बाद में गोरखपुर विश्वविद्यालय गए जहाँ उन्होंने अर्थशास्त्र में स्नातक और स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की।
वह कविता के लिए पंकज सिंह मेमोरियल अवार्ड और सव्यसाची मेमोरियल अवार्ड के प्राप्तकर्ता हैं।
अशोक जी की एक छोटी लेकिन बहुत ख़ूबसूरत कविता।
बिटिया ने कहा
पढ़ने जा रही हूँ
मैंने सुना
सारी दुनिया से अकेले लड़ने जा रही हूँ!
अपनी पुस्तक "कश्मीर और कश्मीरी पंडित" के विमोचन समारोह में। |
आज कल 21 हजार फॉलोवर्स के साथ टि्वटर पर बहुत एक्टिव हैं। कुछ भी सवाल हो, कुछ जानकारी चाहिए तो आप ट्विटर पर इन्हें टैग करके पूछिए रिप्लाई ज़रूर करते हैं। खास कर गाँधी जी और कश्मीर के बारे में कुछ भी पूछ सकते हैं।
वह देश के हालात को देखते हुए कहते हैं कि - मेरा प्रस्ताव है कि धार्मिक झंडों को सिर्फ़ और सिर्फ़ धार्मिक स्थानों तक सीमित करने का क़ानून लाना चाहिए। मंदिर/मस्जिद/गुरुद्वारे आदि के अलावा किसी भी जुलूस में किसी धार्मिक झंडे के उपयोग पर पाबंदी लगा दी जाए।
हाँ, जिसको मन हो अपने घर के भीतर लगाए।
आज कल Team SAATH (Stand Against Abuse Troll Harrasment) का हिस्सा भी हैं। जो समाज के लिए एक सराहनीय कार्य करने के प्रयासरत है।
इनकी आईडी @ashok_kashmir है। इन्हें कश्मीर के इतिहास में बहुत अधिक दिलचस्पी है और आजकल यें और जावेद शाह जी कश्मीर की सांस्कृतिक यात्रा का आयोजन रुह_ए_कश्मीर के नाम से कर रहे हैं।
असल में हाल ही में ये कश्मीर गए तो लोगों ने शिकायत करनी शुरू कर दी कि बताया नहीं और आगे कभी भी प्लान बनाएं तो ज़रूर बताएं। लोगों के मैसेजेस को नजरअंदाज न करते हुए इसका हल निकाला और कश्मीर की सांस्कृतिक यात्रा का आयोजन रुह_ए_कश्मीर के नाम से शुरू किया।
कश्मीर को उसकी सांस्कृतिक ऐतिहासिक विरासत के साथ दिखाने की कोशिश कर रहें हैं। विस्तृत जानकारी के लिए आप इन्हें ट्विटर पर डीएम कर सकते हैं। पूरी जानकारी मिल जाएगी।
अशोक कुमार पाण्डेय एक पुस्तक विमोचन समारोह में। |
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इनकी कुछ कविताएँ आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
"नाराज़गी"
नाराज़गी की होती हैं
अक्सर बेहद मासूम वज़ूहात
जैसे प्यार की
कोई हो सकता है आपसे नाराज़
कि आप नहीं हैं उस जैसे
और कोई इसलिए कि
बिल्कुल उस जैसे हैं आप
किसी को हो सकती है परेशानी
कि आपकी आवाज़ इतनी नर्म क्यूँ है
वैसे आवाज़ की तुर्शी बड़ी वज़ह है नाराज़गी की
कोई नाराज़ है कि आपने नही समझा उसे अपना
बहुत अपना समझ बैठे नाराज़ कोई इसलिए
बहुतेरे लोग नाराज ज़िंदगी से
मौत से दुख ही होता है अक्सर
भगवान से नाराज़ बहुत से आस्तिक
शैतान से भयभीत नास्तिक भी
अब आलोचना वगैरह जैसी नामासूम वज़हों की तो बात ही क्या करना
प्रशंसा भी कर जाती कितनों को नाराज़
आज जो जितना नाराज़ है आपसे
कल कर सकता है उतना ही अधिक प्यार
दुख की नहीं है यह बात
नाराज़ होने की भी नहीं
हर किसी से होता ही है कोई न कोई नाराज़
और जिनसे नहीं होता कोई
अक्सर वे ख़ुद से नाराज़ होते हैं…
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रोने की जगह मुस्करा रही थी वह लड़की
वह मुस्कराती थी
बस मुस्कराए जाती थी लगातार
और उसके होठ मेरी उँगलियों की तरह लगते थे
उसके पास बहुत सीमित शब्द थे जिन्हें वह बहुत संभाल कर खर्च करती थी
हम दोनों के बीच एक काउंटर था जो हम दोनों से अधिक ख़ूबसूरत था
वह बार-बार उन शब्दों को अलग-अलग क्रमों में दोहरा रही थी
जिनसे ठीक विपरीत थी उसकी मुसकराहट
उस वक़्त मैं भी मुस्कुराना चाहता था लेकिन उसकी मुस्कराहट का आतंक तारी था मुझ पर.
कोई था उसकी मुसकराहट की आड में
हम दोनों ने नहीं देखा था उसे
वह पक्ष में थी जिसके और मैं विपक्ष में
एक पुराने बिल और वारंटी कार्ड के हथियार से मैं हमला करना चाहता था
और उसकी मुसकराहट कह रही थी कि बेहद कमजोर हैं तुम्हारे हथियार
मेरे हथियारों की कमजोरी में उस अदृश्य आदमी की ताकत छुपी हुई थी
कहीं नहीं था वह आदमी उस पूरे दृश्य में
हम ठीक से उसका नाम भी नहीं जानते थे
हम जिसे जानते थे वह नहीं था वह आदमी
पता नहीं उसके दो हाथ और दो पैर थे भी या नहीं
पता नहीं उसका कोई नाम था भी या नहीं
जो चिपका था उस दफ्तर के हर कोने में वह नाम नहीं हो सकता था किसी इंसान का
वह जो कहीं नहीं था और हर कहीं था
मुझे उससे पूछने थे कितने सारे सवाल
मैं मोहल्ले के दुकानदार की तरह उस पर गला फाड़ कर चिल्लाना चाहता था
मैं चाहता था उसके मुंह पर दे मारूं उसका सामान और कहूँ ‘पैसे वापस कर मेरे’
मैं चाहता था वह झुके थोड़ा मेरे रिश्तों के लिहाज में
फिर भले न वापस करे पैसे पर थोड़ा शर्मिन्दा होने का नाटक करे
एक चाय ही मंगा ले कम शक्कर की
हाल ही पूछ ले पिता जी का
दो चार गालियाँ ही दे ले आढत वाले को...
लेकिन वहाँ उस काउंटर पर बस एक ठन्डे पानी का गिलास था
और उससे भी ठंढी उस लड़की की मुसकराहट
जिससे खीझा चाहे जितना जाए रीझा नहीं जा सकता बिलकुल भी
जिससे लड़ते हुए कुछ नहीं हासिल किया जा सकता सिवा थोड़ी और उदास मुसकराहट के
मुझे हर क्षण लगता था कि बस अब रो देगी वह
लेकिन हर अगले जवाब के बाद और चौडी हो जाती उसकी मुसकराहट
क्या कोई जादू था उस काउंटर के पीछे कि बार-बार पैरों की टेक बदलती भी मुस्करा लेती थी वह
या फिर जादू उस नाम में जो किसी इंसान का हो ही नहीं सकता था
कि धोखा खाने के बावजूद जग रही थी मुझमें मुस्कराने की अदम्य इच्छा
क्या जादू था उस माहौल में कि चीखने की जगह सोच रहा था मैं
और रोने की जगह मुस्करा रही थी वह लड़की....
क्या ऐसे ही मुस्कराती होगी वह जब देर से लौटने पर डांटते होंगे पिता?
प्रेमी की प्रतीक्षा में क्या ऐसे ही बदलती होगी पैरों की टेक?
क्या ऐसे ही बरतती होगी नपे-तुले शब्द दोस्तों के बीच भी?
क्या वह कभी नहीं लडी होगी मोहल्ले के दुकानदार से?
मान लीजिए मिल जाए किसी दिन किसी भीडभाड वाली बस में
या कि किसी शादी-ब्याह में बाराती हूँ मैं और वह दिख जाय घराती की तरह
या फिर किसी चाट की दूकान पर भकोसते हुए गोलगप्पे टकरा जाएँ नज़रें...
तब?
तब भी मुस्कराएगी क्या वह इसी तरह?
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अंधड़ों की धूल-सा धूसर दुख
पता नहीं आप आधुनिक कहेंगे
उत्तर आधुनिक या कि कुछ और इस समय को
जब विकास-दरों के निर्गुण पैमाने पर नापी जा रही है ख़ुशी
ख़ुदकुशी शामिल नहीं है दुख के सूचकांकों में
और हत्या अमूर्त-चित्रों की तरह
अपने-अपने तरीके से की जा रही है व्याख्यायित
टी०वी० के पर्दों से छन-छन कर
हमारे बीच के निर्वातों पर
किसी रंगहीन विषैली गैस से कब्ज़ा जमाते इस समय में
किसी अपरिचित-सी आकाशगंगा के चित्रों का भयावह कोलाज
झाँकता है किसी डरावनी फ़िल्म के आदमक़द पोस्टर की तरह
जहाँ तमाम विकृत मुद्राओं के बीच
सिर्फ़ जुगुप्सा जगाते हैं हास्य और नृत्य के दृश्य
हँसो तो गों-गों करके रह जाती है आवाज़
नाचो तो ताण्डव की आवृति में कसमसाते हैं पाँव
कौन सी दुनिया है यह?
कौन से युग का कौन सा चरण?
किस विश्वविद्यालय में बना था इसका ब्लूप्रिण्ट?
किस संसद में तय की गई इसकी नियमावली?
कवियों की तो ख़ैर बिसात ही क्या रही अब
पर किन नायकों ने गढ़े ऐसे आदर्श
कि कुछ भी नहीं बचा आश्चर्यजनक-असंभाव्य
कुछ भी हो सकता है किसी भी शब्द का अभिप्राय
किसी भी आस्तीन पर हो सकता है किसी का भी लहू
इस समय के पराजित युद्धबंदी
कुटिन मुस्कान वाले तानाशाह के शरणार्थी शिविरों-सी
अलक्षित अरक्षित बस्तियों में रह रहे जो
बाल-विधवा बुआ-सा रहता ही है दुख उनके साथ स्थाई
फुटपाथ पर हों तो कुचल जाता है कोई सितारा
झोपड़ों से कोई निठारी चुपचाप उठा ले जाता भविष्य
खेतों में पता ही नहीं चलता कब निगल जाती ज़मीन
ख़ुशी-ख़ुदकशी-हत्या-हादसा सब
जैसे हिस्सा रोज़मर्रा की ज़िंदगी का
किसी को नहीं पड़ता फ़र्क
पर
समय के विजय-स्तम्भों से
ख़ुशी से लिपे-पुते से आलीशान मकानों में भी
जहाँ हवा तक नहीं आ सकती बेरोकटोक
पता नहीं किन वातायनों से चला आता है
अंधड़ों की धूल-सा धूसर दुख
और बिखर जाता है दूध से धवल फर्श पर
आश्चर्य-तब भी नहीं पड़ता कोई फ़र्क !
सिर्फ़ थोड़ा और उदास हो जाता है कवि
और उँगलियों से कुरेदता हुआ राख
पूछता है ख़ुद से ही शायद
कौन सा समय यह
कि जिसमें ज़िंदगी की सारी कशमकश
बस, मौत के बहाने ढूँढने के लिए...
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कितनी आश्वस्ति थी तुम्हारे होने ही से बुद्ध
दुखों की कब कमी रही इस कुशीनारा में
अविराम यात्राओं से थककर जब रुके तुम यहाँ
दुखों से हारकर ही तो नहीं सो गये चिरनिद्रा में?
कितना कम होता है एक जीवन दुख की दूरी नापने के लिये
और बस सरसों के पीलेपन जितनी होती है सुख की उम्र...
आख़िरी नहीं थी दुःख से मुक्ति के लिए तुम्हारी भटकन
हज़ार वर्षों से भटकते रहे हम देश-देशान्तरों में
कोसती रहीं कितनी ही यशोधरायें कलकतिया रेल को
पटरियाँ निहार-निहार गलते रहे हमारे शुद्धोधन
उस विशाल अर्द्धगोलीय मंदिर में लेटे हुए तुम
हमारे इतिहास से वर्तमान तक फैले हुए आक्षितिज
देखते रहे यह सब अपने अर्धमीलित नेत्रों से
और आते-जाते रहे कितने ही मौसम…
गेरुआ काशेय में लिपटे तुम्हारे सुकोमल शिष्य
अबूझ भाषाओं में लिखे तुम्हारे स्तुति गान
कितने दूर थे ये सब हमसे और फिर भी कितने समीप
उस मंदिर के चतुर्दिक फैली हरियाली में शामिल था हमारा रंग
उन भिक्षुओं के पैरों में लिपटी धूल में गंध थी हमारी
घूमते धर्मचक्रों और घंटों में हमारी भी आवाज़ गूंजती थी
और हमारे घरों की मद्धम रौशनियों में घुला हुआ था तुम्हारे अस्तित्व का उजाला
हमारे लिये तो बस तुम्हारा होना ही आश्वस्ति थी एक…
कब सोचा था कि एक दिन तुम्हारे कदमों से चलकर आयेगा दुःख
एक दिन तुम्हारे नाम पर ही नाप लिए जायेंगे ढाई कदमों से हमारे तीनों काल
यह कौन सी मैत्रेयी है बुद्ध जिसे सुख के लिये सारा संसार चाहिये?
और वे कौन से परिव्राजक तुम्हारी स्मृति के लिए चाहिए जिन्हें इतनी भव्यता?
तुम तो छोड़ आये थे न राज प्रासाद
फिर...
कौन है ये जो तुम्हें फिर से क़ैद कर देना चाहते है?
कौन हैं जो चाहते हैं चार सौ गाँवों की जागीर तुम्हारे लिए
यह कैसा स्मारक है बहुजन हिताय का जिसके कंगूरों पर खड़े इतराते हैं अभिजन?
कहो न बुद्ध
हमारा तो दुःख का रिश्ता था तुमसे
जो तुम ही जोड़ गए थे एक दिन
फिर कौन हैं ये लोग जिनसे सुख का रिश्ता है तुम्हारा?
कहाँ चले जाएँ हम दुखों की अपनी रामगठरिया लिए
किसके द्वारे फैलाएं अपनी झोली इस अंधे-बहरे समय में
जब किसी आर्त पुकार में नहीं दरवाजों के उस पार तक की यात्रा की शक्ति
कौन सा ज्ञान दिलाएगा हमें इस वंचना से मुक्ति
आसान नहीं अपने ही द्वारों के द्वारपाल हो जाने भर का संतोष
कहाँ से लाये वह असीम धैर्य जिसके नशे में डूब जाता है दर्द का एहसास
वह दृष्टि कि निर्विकार देख सकें सरसों के पौधों पर उगते पत्थरों के जंगल
निर्वासन का अर्थ निर्वाण तो नहीं होता न हर बार
और ऐसे में तो कोई स्वप्न भी अधम्म होगा न बुद्ध
कहो न बुद्ध दुःख ही क्यों हो सदा हमारे हिस्से में?
बामियान हो कि कुशीनगर हम ही क्यों हों बेदखल हर बार?
मुक्ति के तुम्हारे मन्त्र लिए हम ही क्यों हों हविष्य हर यज्ञ के ?
कहो न बुद्ध
क्या करें हम उस अट्टालिका में गूंजते
‘बुद्धं शरणम गच्छामि’ के आह्वान का
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स्रोत: अशोक सर की पुस्तकें, इनके ट्विटर पेज, विकिपीडिया और कविशाला स्रोत रहें हैं और सभी तस्वीरें इनकी ट्विटर पेज से ही लिया गया है।
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