'https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> src='https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> शीतल:- उसकी बिंदी लगी चेहरे से चाँद को रश्क आता है।

साभार:- इंटरनेट

पिक्चर इंटरनेट से साभार।


 "शीतल" शब्द की ही तरह वह शीतल है, लेकिन हर रोज़ उसके किरदार ने मुझे एक नए इंसान से मिलाया। 

वो कभी एक दरिया के बहते हुए पानी की तरह शीतल महसूस हुई तो कभी झरने की पानी की तरह साफ व शफ्फाफ, और कभी इसी झरने के गिरते पानी की कोमल और दिलकश आवाज़ की तरह लगी।


         उसकी नाज़ुकी कभी एक कोमल गुलाब के कली की तरह साबित हुई तो कभी वो उसी गुलाब के कांटों की तरह चुभी। उसका चुभना अच्छा लगा।

         जैसे गुलाब को प्यार करने से इंसान ख़ुद को नहीं रोक सकता, वैसे ही उसके किरदार से हर किसी को मोहब्बत हो सकती है। वो किसी के लिए पूरे होते ख़्वाब की तरह हो सकती है तो कभी किसी के बिखरते ख़्वाब की तरह।

         वो कभी अधूरी है तो कभी उसी पल वो मुकम्मल लगने लगती है। उसकी साँसों में एक गहराई है, तो कभी उसकी हसीं में एक खालीपन, एक बोझ, एक उलझन दिख जाती है। वो प्यार ऐसे बाँटती है, जैसे उसके पास प्यार का ख़ज़ाना हो, लेकिन कभी उसकी हंसी उसके अन्दर के प्यार की कमी भी दिखा देती है।

         उसकी मासूमियत ऐसी है जैसे एक बेअकल बच्ची हो, उसकी आँखें ऐसी हैं जैसे किसी हिरण ने अपनी आँखे उसे तोहफ़े में दी हैं। उसकी बिंदी लगी चेहरे से चाँद को रश्क आता है। 


मेरा दफ़्तर में वो पहला दिन था। मैं उससे पहली बार मिला। उसने अपना नाम नहीं बताया लेकिन दफ़्तर ख़ुद उसके नाम की गवाही देता रहा। दफ़्तर की हर शय उसकी शहादत ऐसे पेश करते रहे कि उसका नाम मेरे ज़ुबान पर चढ गया, ऐसे जैसे कि सफ़ेद पर स्याह रंग चढ जाता है।


महीनों गुज़र गए लेकिन उसके और मेरे रिश्ते की मुझे समझ नहीं आयी। उसके किरदार में मैंने एक दोस्त देखा, जो हर वक़्त, बावफा हर हाल में साथ होता है। जब उसने गलतियों पर डांटा तो वो बहन दिखी। जब उसने प्यार जताया तो एक प्रेमिका दिखी। जब उसने बहुत प्यार किया तो उसके चेहरे में एक "माँ" दिखने लगी।


"माँ" ---- ये शब्द ही ऐसा है कि यहां अच्छे से अच्छा और बारे से बुरा इंसान नत्मस्तक होता है। एक "माँ" जो बेजान सी हड्डियों को अपने प्यार की मेहनत और अपने खून से सींच कर एक कमज़ोर पौधे को मजबूत दरख़्त बनाती है।

एक "माँ" जिसके वजूद से जन्म लिया हुआ शख़्स भले ही बुरा क्यों ना हो, उसके प्यार में कमी नहीं आती।" 


एक अजनबी हो कर हर रिश्ते से ख़ुद को उसके साथ जोड़ा, लेकिन कभी उसका एक किरदार वास्तविक लगता तो दूसरा काल्पनिक। कभी पहले किरदार का पलड़ा भारी हो जाता तो कभी दूसरा।

         हम दोनों के किरदार और वजूद में एक ज़मीनी फ़र्क था। एक फासला ऐसा जिसमें एक खाई की दूरी थी। दो अलग पहाड़ जिसे कोई पुल नहीं एक खाई जोड़ती थी। यहीं कारण रहा उससे कोई एक गहरा रिश्ता जोड़ कर उसे अधूरा नहीं छोड़ना चाहता था, तो छोड़ दिया, क्यों कि मुझे महसूस हुआ कि ये रिश्ते दोनों को व्यवस्थित नहीं कर सकेंगे। ये रिश्ते बोझ बनकर कंधो को दबा देंगे। तो छोड़ दिया जैसे ये पहले था अस्थिर। 



~"अहमद"

        


7 Comments

Post a Comment

Previous Post Next Post