'https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> src='https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> "नियत"

नियत को ज़ेहन में रख कर जब में सोचने लगा, चिन्तन करने लगा तब मेरे ख़्याल भटकने लगे।
इन्हीं भटकते ख़्यालों को समेट कर एक छोटी कहानी बुनी जो दर हक़ीक़त सही भी है।
नीचे पढ़िए।

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नियत


मैं उसका अच्छा दोस्त था, या वो मेरी अच्छी दोस्त थी, या फिर हमारा रिश्ता दोस्ती से ज़्यादा था, हम कभी इसका अंदाज़ा नहीं लगा पाए,,, उसका पूरा दिन मेरे साथ गुजरता था,,, 

हर जगह हम साथ जाते थे, फिर मैंने उसको बिना बताए उसके साथ बाजारों में जाना छोड़ दिया, फिर सोचता रहा कि क्या इस समाज का पुरुष सड़क पर चलती एक स्त्री को अच्छी नज़रों से भी देख सकता है.? 
कभी-कभी मैं मान भी लेता हूँ कि हां देख सकता है।


क्यों कि हम जब भी कभी, कहीं साथ जाते तो लोग मुझसे ज़्यादा उसको देखते और उससे ज़्यादा उसके स्तनों को,, 

मैं आस पास से गुजरते हुए लोगों को देखता, फिर उनकी मुस्कुराहट को देखता,,, फिर उसको ये सब मैं नजरअंदाज करते हुए देखता,
 उनकी वो जहरीली मुस्कान मेरे अन्दर एक तकलीफ़ और दर्द पैदा करती, तब मुझे, मेरे पुरुष होने पर शर्म महसूस होती।

फिर मैं सोचता कि एक स्त्री के वजूद पर उसके दो स्तन कितने भारी हो जाते हैं कि उसकी मुश्किलें बढ़ा देते हैं। 

मैं सोचता हूं कि क्या ये वहीं स्तन हैं जिसकी वजह से एक स्त्री की इज्ज़त पर पुरुष हाथ डाल देता है, वही पुरुष, जिसको इस दुनिया में जीवित रखने के लिए एक स्त्री ने अपने स्तनों से आहार दिया था ।


~"अहमद"

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