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पिता


ये दुनियाँ है, इसके हिन्दुस्तान में मेरा जन्म हुआ और यही रहना हो रहा है, ज़िन्दगी का गुज़र बसर हो रहा है, जिसके तीन शहरों में मेरी ज़िन्दगी की साईकिल चल रही है,
इस ज़िन्दगी की साईकिल के पैडल तक मेरे पैर, अभी तक नहीं पहुँच सके हैं, जबकि मैं यहां के २३ सावन देख चुका हूँ।

हर वक्त शिकायत होती थी कि मेरी ज़रूरतें तो पूरी होती है लेकिन मेरी कुछ ख्वाहिशें अधूरी रह जाती हैं, और इन सभी अधूरी ख्वाहिशों के ज़िम्मेदार मेरे अब्बा हैं।

क्या ये बात सच है कि यदि किसी बच्चे की ज़रूरतें पूरी करने में, उसका पिता, उसकी कुछ ख्वाहिशें पूरी नहीं कर सकें तो वो असफल है?

या ये हर पिता का कर्तव्य है कि वो अपने बच्चों की ज़रूरतों के साथ, उसकी सारी ख्वाहिशें भी पूरी करे?

जब कोई इन्सान पिता की जगह होता है तो उसकी बस यही ख्वाहिश होती है कि वो अपने बच्चों की हर एक ख्वाहिशों को पूरा करे और वह पिता अपने बच्चों की ख्वाहिशों को पूरा करते करते अपनी ख्वाहिशें भुला जाता है।
इन सभी बातों को समझने के लिए मेरी ही तरह हर उस बच्चे को अपने जीवनयापन पर गौर_वो_फ़िक्र करनी चाहिए, जैसे हर शाम मैं एक चाय की कप लेकर घर के टैरिस पर बैठ कर करता हूं, चिंतन से सब साफ़ हो जाता है!
जब टैरिस पर बैठ कर देखता हूं कि सामने घरों का समंदर है लेकिन इस समंदर में मेरे अब्बा गोते लगा रहे हैं कि मैं शाम को अपने टैरिस पर सुकून से बैठ सकुँ, जब कि ये कहानी उलट होनी चाहिए थी।
तब मुझे ख़ुद की सोच पर ही शर्म आती है कि ये भला मैंने कैसे सोच लिया कि मेरी "कुछ ख्वाहिशें" पूरी नहीं होने के ज़िम्मेदार मेरे "अब्बा" हैं,
नहीं, बिल्कुल नहीं, ये गलत है और अब ये मैं समझ गया हूँ।

सब कुछ समझने के लिए समझदार होना जरूरी नहीं है, बल्कि अपने आप की, खुद की तुलना जरूरी है, और वो भी उनसे, जिनसे हम बहुत पीछे रह गए हैं, हमारे पीछे रहने के ज़िम्मेदार हमारे पिता बिल्कुल भी नहीं हैं, क्योंकि इस दुनियाँ में हजारों लोगों ने अपने नाम खुद बनाएँ हैं, और उन्होंने भी ये स्वीकार किया है कि ज़िम्मेदार बनना उन्होंने अपने पिता से सुना और सीखा है।

पिता तो मार्ग दर्शक है जो हमें रास्तें दिखता है और उन रास्तों की मुश्किलों को, परेशानियों को पूरी अच्छे तरह से समझता रहता है, वो कभी भी नहीं चाहता कि उसने अपनी ज़िन्दगी में जो भी गलतियांँ की है, उसके बच्चों द्वारा दोहराई जाए।
अब ये हम जैसे बच्चों की ज़िम्मेदारी है कि अपने पिता के उम्मीदों पर खरे उतरे।

मैं हमेशा अपने पिता को ग़लत कहता था कि वो मुझे हमेशा ही बोलतें डाँटते रहते हैं, वो मुझसे प्यार नहीं करते, वो छोटी छोटी गलतियों पर भी डाँटने लगते हैं, ये मुझे हमेशा बुरा लगता था, लेकिन जब मैंने अपना घर छोड़ा, और कई अलग अलग तरह के लोगों से मिला, जब इस दुनियाँ ने मुझे ठुकराना शुरू किया तब मुझे एहसास हुआ कि मेरे पिता हमेशा मुझसे मेरा शत् प्रतिशत चाहते थे और इसी वजह से वो मेरी एक भी गलती माफ़ नहीं करते थे।
क्यों?

क्यों कि वो सबकुछ बर्दाश्त कर सकते हैं, एक पिता सब कुछ बर्दाश्त कर सकता है लेकिन अपने बच्चे को असफल होते देखना उसे कभी भी बर्दाश्त नहीं होगा, और मेरे पिता भी यही कर रहे थे, उन्हें मुझे हरता, असफल होते देखना बिल्कुल पसंद नहीं था। यही कारण है कि वो मुझसे हमेशा शत् प्रतिशत चाहते रहे हैं।

      हमें हमेशा अपने पिता की इज्ज़त करनी चाहिए, कद्र करनी चाहिए, उनकी बातें साहनी चाहिए और सही रास्ते पर ख़ुद को डाल देना चाहिए तब ही हम जीवन में सफल हो सकते हैं, किसी ने सत्य ही कहा है कि यदि कोई पत्थर छैनी-हथौडी की चोट से डरता है तो वह कभी भी मूर्ति नहीं बन सकता।
एक पिता का डांट और गुस्सा भी छैनी-हथौडी की ही तरह होता है, अगर एक बच्चा अपने पिता की बातों का बुरा मान जाए और उनके बताएँ रास्तों को गलत कहने लगे तो समझ जाओ कि वो अपने जीवन में कभी सफल नहीं होगा।
तो अपने पिता की अदब करो, इज्ज़त करो और कोशिश करो कि ये दुनियाँ भी उतनी ही इज्ज़त और अदब से तुम्हारे पिता को देखे और उसने बात करे।
माता-पिता ख़ुदा का दिया हुआ वो तोहफें है जो अनमोल है।
           

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