लेखिका: सुरभि घोष “संजोगीता”
प्रकाशक: राजमंगल प्रकाशन
राजमंगल प्रकाशन बिल्डिंग, 1st स्ट्रीट,
सांगवान, क्वार्सी, रामघाट रोड,
अलीगढ उप्र. - 202001
पहला संस्करण: मार्च 2021
ISBN: 978-9390894444
किताब का नाम “माँ तुम्हारे लिए...” जब आप पढ़ते हैं तभी आपको कुछ ये
पता चल जाता है कि ये किताब पूरी तरह एक ‘माँ’ के लिए और उसके बारे में है। माँ इस दुनिया का ऐसा रिश्ता है जिसकी बराबरी कोई और रिश्ता कर ही
नहीं सकता। इस रिश्ते का दर्ज़ा
खुदा ने ऐसा बनाया कि एक ‘माँ’ के पैरों के निचे जन्नत रख दी।
सुरभी ने भी अपनी इस पहली किताब को अपनी माँ–बाबा को समर्पित करते हुए
बहुत खूब लिखा है। ये किताब असल में
एक ‘माँ और बेटी’ के बिच पत्रों के द्वारा किए गए संवाद हैं। इस किताब में सुरभी जी के द्वारा ‘30 जनवरी, 2016’ को उनकी ‘माँ’ को
पहला पत्र लिखा गया है जब वो कैंसर जैसी बहुत ही घातक बीमारी से लड़ते हुए इस
दुनिया और अपने परिवार को छोड़ गयी। जीवन का यही तो
यथार्थ है हम किसी से कितना भी प्रेम करें लेकिन प्रकृति के नियम नहीं बदले जा
सकते.
ये किताब ज़रूर एक बेटी ने अपने ‘माँ’ के नाम लिखा है लेकिन जब आप इसे
पढना शुरू करते हैं तो ऐसा लगता ही जैसे ये आपकी, अपने घर की और अपने माँ के लिए
प्रेम लिखा गया है। इसमें प्रेम लिखा गया है। वो संवाद लिखे गए है जो हम सभी अपने माता पिता से करना चाहते हैं
लेकिन बहुत सारे संवाद, बहुत सारी बातें अधूरी रह जाती है।
किताब चार सालों की स्मृतियाँ है, जब लेखिका की ‘माँ’ ने इस ख़त्म हो
जाने वाली दुनिया को छोड़ा तो उन्हें, उनके खालीपन और उनकी कविताएँ और उनका एक
पत्नी और माँ होने के बाद की बातें याद आती गयी और ये अपनी चिठ्ठियों से उनसे बात
करती रही। लेखिका को उम्मीद थी कि शायद ये किताब
की शक्ल ले लेंगी तो इनके बाबा खुश होंगे, लेकिन प्रकृति ने एक अपनी चाल चली और
किताब के आखरी चिठ्ठी में ये लिखा गया है कि किताब आने से पहले ही उनके पिता भी
चले गए। लेखिका की इस बात की भी सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने अपने इतने
करीबी पत्रों को सामने लाया।
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लेखक का परिचय:
सुरभी घोष 'संजोगीता' का जन्म
पश्चिम बंगाल के एक गांव में हुआ और परवरिश हिमाचल की सुंदर पहाड़ियों और
छत्तीसगढ़ में हुई। अब वो बैंगलोर में निवास करती हैं। लिखना उन्होंने बचपन से ही
शुरू कर दिया था। उन्होंने बैंगलोर के कई मंचों पर अपनी कविताएं पढ़ीं हैं। साथ ही
कई कविता संग्रहों और पत्रिकाओं में उनकी कहानियां और कविताएं छपी हैं। उन्होंने
अपने लेखन को अपने माता पिता को समर्पित करते हुए अपना लेखक उपनाम 'संजोगीता' चुना है। जो
उनके माता पिता के नाम से जुड़कर बना है (संजय कांति घोष और गायत्री घोष)।
कुछ वर्ष पहले जब माँ चली गयी और मैंने स्मृतियों का पिटारा खोला तो ये अनुभूति हुई कि मेरे पास उस पिटारे में माँ के एक पत्नी और माँ होने की ही स्मृतियाँ हैं, बस। माँ की पुरानी तस्वीरें और डायरी सबकुछ सामने पड़ी थी और उनमे माँ नहीं थी – एक चंचल बच्ची , सपनो से भरी एक लड़की, एक प्रेमिका, एक बेटी और बहुत कुछ। ऐसा लगा एक ग्लेशियर है सामने। जितना ऊपर दिखता रहा, हम उतना ही देख पाए, जबकि एक बड़ा हिस्सा अन्दर ही छुपा रहा। बहुत इच्छा हुई कि ये सारे प्रश्न ‘माँ’ से करूँ लेकिन जीवन की रेतघड़ी से सारा रेत फिसल चुकी थी और बहुत सारे संवाद अधूरे छुट गए।
किताब से
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आपको ये किताब क्यों पढ़नी चाहिए?
ये
किताब सभी को पढनी चाहिए क्यों कि इस दुनिया में कोई भी ‘माँ’ के बिना नहीं आया। माँ के बिना दुनिया की कल्पना भी असंभव है। हर व्यक्ति का वजूद एक माँ, एक औरत से जुड़ा होता है। जब आप इस किताब को पढ़ते हैं
तो आपको पता चालता है कि आपको अपनी ‘माँ’ के जितना करीब रह सकते हैं, जितना उनके
साथ समय बिता सकते हैं, बिता लेनी चाहिए। यदि किसी की माँ इस दुनिया में अभी भी सांसे ले रही
हैं तो उनके साथ बैठना चाहिए और उन्हें समझना चाहिए, यदि आपकी माँ नहीं हैं तो
शायद आप भी लेखिका के पीड़ा को महसूस कर सकें। ये किताब एक ‘माँ’ के जाने
के बाद उसकी बेटी के ह्रदय में पैदा हुए पीड़ा का निचोड़ है। यादों का एक पिटारा है। ये वो पिटारा है जो एक
बेटी, अपनी ‘माँ’ से कर सकती थी लेकिन नहीं कर सकी।
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आपको किताब में क्या कमी लग सकती है।
कमी शायद किसी भी किताब में नहीं होती। सब अपनी जगह पर पुरी होती हैं, इस किताब की सारी चिठ्ठियों ने खूब बांधे रखा। लेकिन मुझे लगता है कि हर चिठ्ठी के बाद उसके आस-पास की स्मृतियों के साथ आज का एक नोटनुमा कुछ संवाद लिखें होते तो किताब और बेहतरीन बन सकती थी।लेकिन एक बात है कि हर चिठ्ठी के बाद की कविताओं ने इसे पूरा किया है।
“30
जनवरी 2016 से 21 दिसम्बर 2020 तक” मतलब चार साल में काफी कुछ और हो सकता था। ये भीबहुत मुमकिन
है कि लेखिका ने कुछ अपने और माँ के बिच के संवाद दुनिया के सामने न रखना चाहती हो। लेकिन चार साल के
ये संवाद कम लगते हैं। किताब में शब्द और भाषा का प्रयोग बहुत खूबसूरती
से हुआ है, लेखिका शब्दों को बुनना बहुत अच्छे से जानती हैं और इसमें काफी सफल भी
रहीं है। लेकिन मुझे ऐसा
लगता है कि किताब थोड़ी और मोटी हो सकती थी।
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इस किताब से कुछ पंक्तियां और कविताएँ जो बेहद ख़ूबसूरत और दिल के क़रीब जा बसी।
(1)
“अंत में जब कुछ नहीं बचता
हम ‘काश’ और ‘संभव’ के ढांचे बनातें हैं,
और उन्हें स्मृतियों के अवशेष से
सजाते हैं”.
(2)
“शब्दों में कुछ रिश्तों के विस्तार को उतर पाना संभव नहीं है,
शाम सबको नतमस्तक होकर ये मन लेना चाहिए
कि माँ पर लिखी गयी हर कहानी, हर कविता
इस विस्तार को नापने में असमर्थ हैं”.
(3)
“किसी के चले जाने का बोझ
ह्रदय पर रखा वो पत्थर है जो समय
को रोक देता है,
छूटे हुए की रिक्तता का बोझ
हन्मारे ह्रदय पर बैठा सबसे भरी बोझ है
जिसे ढोना हमारी नियति है”.
(4)
“प्रेम जितना सरल होता है,
उसकी गहराईयों में उतना ही मौन होता है,
किसी भाषा, किसी शब्द में
उसकी गहराईयों को
समेटना संभव नहीं”.
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नोट: इस समीक्षा में संलग्न तस्वीर सुरभी जी की जानकारी में और उनकी स्वीकृति से लगायी गयी है.
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