आज "किताबों की बातें" कॉलम में मैं मेरी पहली किताब "रेलवे स्टेशन की कुर्सी" की बात करूंगा।
"रेलवे स्टेशन की कुर्सी" का कवर |
आज "किताबों की बातें" कॉलम में मैं मेरी पहली किताब "रेलवे स्टेशन की कुर्सी" की बात करूंगा।
लिखना मुझे अच्छा लगता है। कविताएँ, कहानियाँ, शायरी... लिखते-लिखते एक दिन मेरे ज़ेहन में आया कि कहानियों को किताब की शक्ल में लोगों तक पहुँचाना चाहिए। दोस्त ने कहा - "यार तू तो बढ़िया लिखता है। तेरी कहानियों की किताब तो आनी ही चाहिए।" बस फिर क्या था हम फूल के गुब्बारा हो गए और फुला-फुला कर "थैंक यू" बोलते रहे।
दोस्त होते ही ऐसे हैं। ख़ैर...मैंने मेरी कहानियों को लिखा और जब एक संग्रह की तरह हो गई तो मुझे भी लगा कि किताब की शक्ल में लोगों तक पहुँचनी चाहिए। और दोस्त की प्रशंसा से ओथ-पोथ मैं लग गया इसके फेरे में। जहाँ कहीं भी, कुछ भी जानकारी मिलती लपेटने लगे। समेटते रहें और समझते रहें।
कुछ पब्लिशर्स को भेजा। कई पब्लिशर्स ने माना किया। कुछ ने टाईम का अभाव बताया और कुछ ने साफ कह दिया कि नहीं छाप सकते तो कुछ ने मेल का रिप्लाई करना भी मुनासिब नहीं समझा। इसी में से "राजमंगल प्रकाशन" ने इसे छापने की हामी भर दी और एक साल दो महीने के इंतज़ार के बाद आज किताब किंडल वर्जन में अमेज़न पर उपलब्ध हो चुकी है।
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किताब के बारे में बताना चाहूँगा कि ये समाज की बात करती है। समाज में फैले असमनताओं की बात करती है। पढ़े लिखे और अनपढ़ लोगों के बीच की समानताओं की बात करती है। बाप-बेटे के ज़िन्दगी की बात करती है। दोनों के रिश्तों की बात करती है। दोस्ती और प्रेम की बात करती है। और भी बहुत कुछ....
मैंने कहानियाँ लिखी और अब किताब की शक्ल भी ले चुकी है। अभी किताब अमेज़न पर किंडल वर्जन में उपलब्ध है। जल्दी ही पेपर बैक भी ऑनलाइन उपलब्ध हो जाएगी। आप किताब को पढ़ें और अपना फैसला करें कि मैंने इसके साथ कितनी सच्चाई और ईमानदारी के साथ कहानियों को उकेरने में कामयाब हो सका हूँ। क्या में कहानियों के किरदारों के साथ न्याय कर सका हूँ? यदि नहीं भी हुआ हूँ तो आप नकारिए और बताईए मुझे। मुझे बुरा नहीं लगेगा। मैंने अपनी इस छोटी सी जीवन का जो भी अनुभव रहा है उसके हिसाब से इसमें लिखने की कोशिश की है।
किताब पर मेरा परिचय...
बिहार के सीवान जिले के जमाल हाता गाँव में पैदा हुए। पहले घर पर और गाँव के मदरसे में पढ़ाई शुरू हुई जिससे ऊर्दू सीखा और फिर प्राथमिक और उच्च विद्यालय की पढ़ाई हुई। बचपन से ही स्थानीय भाषा भोजपुरी सीखी।
इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन के लिए भोपाल में चार साल रहें।
अहमद कहते हैं कि "जीवन एक दरिया की तरह है और हम सभी एक नाव पर हैं जहाँ कोई भी पतवार नहीं है लेकिन पतवार बनाने के लिए ज्ञान का भण्डार यहाँ अवश्य उपलब्ध है।
हम उससे अपनी नाव खेने का पतवार बना सकते हैं लेकिन खेवय्या प्रकृति ही होगी। हमारी इस जीवन के दरिया का किनारा मृत्यु है।" आज कल दिल वालों की दिल्ली में निवास स्थल बनाएँ हुए हैं।
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ये किताब आपकी है। आशा है ये आपको अपनी लगे, अच्छी लगे। इसकी कहानियाँ आपको अपनी लगे। इसके किरदार में आप खुद के देख पाएँ।
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