प्रिय रौशन,
मैं जानता हूँ कि तुम आज भी उसी प्रेम दर्द में होगे, मैं आशा या कल्पना भी नहीं कर सकता कि तुम्हें उस अथाह प्रेम पीड़ा से मोक्ष मिल सका होगा। यही कारण रहा कि मैंने सोचा ये पत्र तुम्हे लिख दूँ और जो भी प्रश्न मेरे हृदय में उत्पन्न होते हैं, पूछ लूँ।
मैं सबसे पहले पूछना चाहता हूँ कि तुम्हें मैं किस तरह का प्रेमी लिखूँ? या कोई प्रेम देवता लिखूँ? या लिख दूँ तुम्हें कोई सन्यासी? वो सन्यासी जो प्रेम की खोज में निकलता है। लेकिन तुम तो प्रेम खोजी भी नहीं थे। तुम तो बस प्रेमी थे, मनुष्य प्रेम में पड़ा पुरुष जो समाज के हर मनुष्य से प्रेम करता था। समाज के हर पीड़ित के लिए तुम्हारे हृदय में करुणा भरी थी। किसी भी ख़ुश व्यक्ति को देखकर तुम्हारी आँखें चमक जाती थी। तुम भी ख़ुश होते थे।
फिर ये प्रेम क्यों? तुम कौन हो? तुम कैसे प्रेमी हो? जानता हूँ प्रेम होना स्वाभाविक है और ये किसी भी समय, अवस्था और मौसम में उग आता है लेकिन तुम तो इसे नियंत्रित कर सकते थे। तुम तो बहुत शाँत और स्थिर थे, फिर ये तुम्हारे व्यक्तित्व में अस्थिरता कैसे आयी? तुम कैसे इस प्रेम को रोक ना सके। चलो मना कि ये तुम्हारे प्रेम निर्जन हृदय में उग भी आया तो तुम इतने चिम्मर कैसे बने रहे? कैसे ये हरियाली तुम्हारे हृदय को हरा कर गई जब कि तुम जानते थे कि ये प्रेम हमेशा तुम्हारे लिए दर्द बना रहेगा, या फिर तुम्हें इसको लेकर कोई आशा थी?
तुम्हारे विरह पीड़ा को मैं समझ सकता हूँ, मैं बहुत अच्छे से समझ सकता हूँ। शायद मेरे तरह के ही लेखक इस पीड़ा को समझ पाएंगे। तुम समाज के लिए आपने हृदय में प्रेम लिए शहर भर में घूमते रहे लेकिन तुम्हारे दफ़्तर की एक स्त्री ने तुम्हारे हृदय को शून्य कर दिया। तुम सभी के लिए करुणा रखते हुए अपने मस्तिष्क के एक कोने में सिर्फ अमरीन, अमरीन... करते रहे।
आख़िर क्या बात है अमरीन में? वो भी तो और दूसरी लड़कीयों की ही तरह एक लड़की है। तुम अपने भीतर उसके प्रेम का ज्वार भाटा लिए घूमते रहे। शायद तुम उस पल को अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और बहुमूल्य पल मानते होगे लेकिन मैं कोसता हूँ उस पल को, जब तुमने सीढ़ियों पर उसके मासूम और उदास चेहरे को देखा। काश तुम उसे बिना देखे नीचे उतर गए होते या ऊपर जाती सीढ़ियों के साथ तुम ऊपर चले गए होते। काश तुम उस पल वहाँ पहुँचते ही नहीं।
तुमने उस स्त्री के प्रेम में क्या नहीं किया। सबकुछ। प्रेम में तुम धर्म और संप्रदाय की दीवार भी तोड़ने निकल पड़े। उस स्त्री के प्रति प्रेम का समर्पण, श्रद्धा और निष्ठा ऐसी कि वो नहीं किया जो आज कल का बिगड़ा और लंगड़ा समाज करता है। आज कल के अभद्र प्रेम वातावरण में भी तुमने अपने प्रेम को इतना पवित्र रखा की तुमने उसे कभी छुआ तक नहीं। तुमने उस स्त्री को तब भी नहीं छुआ जब उसने अपनी हाथो को जोड़ कर तुमको वापस इस रास्ते से मूड जाने को कहा था। तुम उसके हाथो को छुड़ाना चाहते थे लेकिन प्रेम दायरे में उसे छुआ नहीं।
तुमने प्रेम में दर्द को उपहार समझा लेकिन सहानुभूति नहीं ली। मुझे ख़ुशी है कि अब तुम इस उपहार के साथ वापस लौट रहे हो। कभी-कभी तो मैं तुम्हारे जैसे प्रेम हो जाने से डरता हुँ, मैं डरता हुँ कि यदि ऐसा प्रेम मुझे हो गया तो मैं इस पीड़ा को कैसे संतुलित करूंगा, कैसे झेल पाऊँगा? तुम जैसे टूट कर प्रेम करना सबके बस की बात नहीं। तुम्हे तुम्हारा प्रेम मिले या नहीं मिले लेकिन मेरे लिए तुम प्रेमदूत हो। तुम वीर नायक हो।
रौशन! तुम, होना सभी के बस की बात नहीं, बल्कि किसी के भी बस की बात नहीं। 'तुम' सिर्फ तुम हो।
~"अहमद"
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