'https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> src='https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> प्रेम कविताओं में उलझा एक विज्ञान का शिक्षक!

 


               
          विवेक कुमावत एक शिक्षक हैं। दिन का अधिक समय बच्चों को पढ़ने में बीतता है। एप्लाइड फिजिक्स में मास्टर्स करने के बाद एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षक के पद पर कार्यरत हैं और ख़ुद की कोचिंग संस्था भी चलाते हैं। पढ़ते पढ़ाते साहित्य से प्रेम इस कदर बढ़ा की हर रोज़ बहुत ही आशा और लगन के साथ अपनी कविताएँ रचते हैं। इनकी कविताएँ पढ़ कर लगता भी है कि बहुत सारी रचनाओं के संगम का निचोड़ हैं। इनकी कविताएँ दिल पर एक आरामदायक मरहम की तरह काम करती हैं।


कुमावत जी का साहित्यिक जीवन टुकड़ों में बटा हुआ है और खुद को अभी लेखक नहीं, पाठक ही समझते हैं। ट्विटर के माध्यम से बात होने पर इन्होंने बताया कि अभी साहित्य में इन्होंने अपना वो मकाम नहीं बनाया है। ख़ुद को अभी सीखता हुआ देखना चाहते हैं। कविता रचना और साहित्य सेवा को समर्पित इस तरह से हैं कि हर दिन कितना भी व्यस्त रहे, 1-1.30 घंटे का समय निकाल ही लेते हैं। साहित्य रचनाएँ इन्हें अपनी तरफ आकर्षित करती हैं।


इनके पसंदीदा लेखकों में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और भवानीप्रसाद मिश्र सबसे पहले शुमार होते हैं। फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश, इराकी कवि साबिर हाका, पॉज पसंदीदा कवियों में हैं, लेकिन कुमावत जी कहते हैं कि पत्नी से प्रेम ने इन्हें साहित्य से जोड़ा। शुरुआती दिनों में बस पाठक थे लेकिन जब होने वाली पत्नी को देखा तो ऐसे प्रेम में पड़े कि अपनी साहित्य ज्ञान से प्रेम कविताएँ रचने लगे। साहित्य रचने का पूरी तरह पत्नी को श्रेय देते हैं। लेकिन पिछले 1.5-2 सालों से निरंतर लिखना जारी रखे हुए हैं।


कुमावत जी साहित्य के बारे में कहते हैं कि...

 साहित्य, समाज के साथ आगे बढ़ता हैं। संतुलन तो हमेशा बना ही हुआ हैं। अच्छा साहित्य समाज को सुधार सकता हैं और अच्छा समाज साहित्य को। 


साहित्य और कला में उपयोग होने वाले आज कल के अभद्र भाषाओं से कुमावत जी बहुत दु:ख में हैं। साहित्य, तो समाज को व्यवस्थित करता है। साहित्य प्रेम सीखता है। साहित्य, प्रेमियों के दिलों में एक आग जलाता है जिससे वो मनुष्यता के ताप में तपकर मनुष्यों के प्रति प्रेम समर्पण दिखता है।  साहित्य मनुष्य को मनुष्यता सीखता है। प्रेम सीखता है। साहित्य प्रेम से त्याग सीखता है।



विवेक कुमावत जी




आईए विवेक कुमावत जी की कुछ कविताएँ पढ़ते हैं।


1. 

विश्वास

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वे लोग

ईश्वर की मूर्ति को

पूज रहे थे


ऐसे ईश्वर की मूर्ति को 


जिसके

ना हाथ थे

ना पैर थे

और ना ही कोई चेहरा था ।

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2.  

बनिस्बत डरने के 

भरोसा रखो ईश्वर पर ।


इस तनाव में

तुम भूल चूके हो कि --


ईश्वर ने

हमारा दुःख

पानी पर लिखा हैं ।


तुम्हें पता नहीं


पानी बहुत भुलक्क़ड हैं

और उसे कुछ भी याद नहीं रहता ।

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3.

 सांत्वना

उनके टूथपेस्ट में हैं


इसलिए वो जब चाहे तब

अपने दांतो को उससे रगड़ते हैं

और थूकते हैं 


उनके सांत्वना से

किसी का भला होता हैं या नहीं 

मैं नहीं जानता


मगर उनके दांत

अब पहले से 

और ज्यादा चमकदार हो चूके हैं ।

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4.

 गरीब लोग 

गरीबी के लिए

खींची हुई चॉक लाईन हैं

जिस पर अपना

एक घुटना टेक कर गरीबी


अपनी ज़िन्दगी की दौड़ 

शुरू करती हैं ।

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5. 

वहाँ आदमियों की

 एक लम्बी कतार लगी थी ।

हिम्मत बाँटी जा रही थी वहाँ ।


कतार के

आख़िर में खड़े आदमी को 

हिम्मत दिखाई नहीं देती 


उसे दिखाई देता हैं 

उसके आगे खड़ा एक और आदमी ।

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विवेक कुमावत जी















6. 

प्लेटफार्म पर

सामान से लदी

एक मालगाड़ी आयी

और बिना रूके वहाँ से चली गयी ।

मालगाड़ी बहुत डरी हुई थी !


उसने प्लेटफार्म के

ना तो बायीं ओर देखा

और ना ही दायीं ओर !


एक मालगाड़ी के लिए

प्लेटफार्म सबसे वीरान जगह हैं ।

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7. 

औरतों !

जब तुम्हारे गड़े हुए सपने


हजार बरस बाद

खोजे जायेंगे


तब आदमी

फिर से उन्हें नया नाम देगा


और उस नाम के अंत में

लिखा होगा 'सभ्यता' ।

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8. 

लोग कहते हैं -

"सीधे रास्ते पर चलो !"


मगर रास्ता

कभी सीधा नहीं होता !


और यह बात

मैं यकीन के साथ कह रहा हूँ ।


सच बताऊँ तो

मैं रास्तों के बारे में

कुछ भी नहीं जानता हूँ !


मगर

रास्ता बनाने वाले को मैं

अच्छी तरह से जानता हूँ !


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9.

 हमारी दुनिया हमें

सीधी खींची हुई

लकीर पर

लकीर खींचना सिखाती हैं ।


हमें पता हैं -


सीधी लकीर पर

लकीर खींचने से

सिर्फ़ लकीर मोटी होती हैं ।


हमें यह भी पता हैं -


सीधी लकीर पर

लकीर खींचने से

सिर्फ़ कागज़ बटता हैं !


मगर कागज़ पर

कुछ बनता नहीं ।


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10. 

हमारा समाज

एक 'बस' हैं !


सफ़र करने वाले जानते हैं

पीछे की सीटों में 

आगे की सीटों से 

झटके ज्यादा लगते हैं ।


मैं देख रहा हूँ -


औरतें

पीछे की सीट पर बैठकर

कहीं जा रही हैं ।


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यह लेख विवेक कुमावत जी से ट्विटर पर बातचीत के आधार पर लिखी गई है। यदि आप भी इनसे जुड़ना चाहते हैं तो ट्विटर पर इनका पता निम्न है। 

विवेक कुमावत | @Arastu29

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