'https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> src='https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> पुस्तक समीक्षा : मुसाफ़िर कैफे


किताब :- "मुसाफ़िर कैफे" 

लेखक:- दिव्य प्रकाश दुबे

प्रकाशक: हिन्द युग्म और वेस्टलैंड लिमिटेड

सी- 31, सेक्टर 20, नोएडा ( उ• प्र• ) - 201301

फ़ोन नंबर :- +91-120-4374046


 93, 1st floor,. Sham lal road, Daryaganj, New Delhi 110002,


प्रकाशन वर्ष: 2016

मूल्य: 150/- 


ISBN: 978-9386224-01-9



उपन्यास "मुसाफ़िर कैफे" दिव्य प्रकाश दुबे जी की तीसरी और बेस्ट्सेलर किताबों में से एक है। उनके लेखन का कायल हो चुका हूँ। दिव्य प्रकाश आज के समकालीन लेखकों में सबसे पसंद आने वाले लेखक है।


दिव्य प्रकाश दुबे


दिव्य प्रकाश दुबे

दिव्य प्रकाश दुबे बेस्ट सेलर ‘मसाला चाय' और 'टर्म्स एंड कंडिशंस अप्लाई' लिखने के बहुत समय बाद तक दिव्य प्रकाश दुबे ( DP ) को यही माना जाता था कि वे ठीक-ठाक कहानियाँ लिख लेते हैं। लेकिन अब जब वे 'स्टोरीबाज़ी' में कहानियाँ सुनाते हैं तो लगता है कि वे ये काम ज़्यादा अच्छा करते हैं। Tedx में बोलने गए तो टशन-टशन में हिंदी में बोलकर चले आए। हर संडे वो संडे वाली चिट्ठी लिखते हैं कुछ ऐसे लोगों के नाम जिनके नाम कोई चिट्ठी नहीं लिखता। तमाम इंजीनियरिंग और MBA कॉलेज जाते हैं तो अपनी कहानी सुनाते सुनाते एक-दो लोगों को रायटर बनने की बीमारी दे आते हैं। पढ़ाई लिखाई से BTech-MBA हैं। और पांच साल तक एक Telecom Company में AGM (Assistant General Manager) के पद पर कार्यरत रहें अब मुंबई में अपना फिल्मों और टीवी के लिए फूल टाइम रायटर बने हुए हैं। इनकी अन्य कहानियों की किताबें, शर्तें लागू, अक्टूबर जंक्शन, और इब्नेबतूती भी पाठकों तक पहुँच चुकी है।                

                                                             ~किताब से



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किताब की यहीं खासियत रही है कि आखिर आखिर तक आपको बांधे रखती है। एक प्रेमी युगल की ऐसी कहानी जो दोनों एक दूसरे से बहुत अलग हैं।


ये कहते हैं कि बातें किताबों से बहुत पहले पैदा हो गई थीं। हमारे आस-पास बातों से भी पुराना शायद ही कुछ हो। बातों को जब पहली बार किसी ने संभाल के रखा होगा तब पहला पन्ना बना होगा। ऐसे ही पन्नों को जोड़कर पहली किताब बनी होगी। इसीलिए जिंदगी को सही से समझने के लिए किताबें ही नहीं बातें भी पढ़नी पड़ती हैं। बातें ही क्या वो सबकुछ जो लिखा हुआ नहीं है, वो सबकुछ जो किसी ने सिखाया नहीं। वो सबकुछ समझना पड़ता है जो बोल के बोला गया और चुप रहकर बोला गया हो। पता नहीं दो लोग एक-दूसरे को छूकर कितना पास आ पाते हैं। हाँ, लेकिन इतना तय है कि बोलकर अक्सर लोग छूने से भी ज्यादा पास आ जाते हैं। इतना पास जहाँ छूकर पहुँचा ही नहीं जा सकता हो। किसी को छूकर जहाँ तक पहुँचा जा सकता है वहाँ पहुँचकर अक्सर पता चलता है कि हमने तो साथ चलना भी शुरू नहीं किया।


धर्मवीर भारती जी की किताब गुनाहों के देवता का ज़िक्र करना बहुत जरूरी हो जाता है क्योंकि, इस किताब के मुख्य किरदार के नाम, उनकी किताब के मुख्य किरदार के नाम हैं और इसको जान-बुझकर दुबे जी ने उपयोग में लाया है। वो कहते हैं कि धर्मवीर भारती जी को रिस्पेक्ट देने का यहीं तरीका उन्हें सबसे सही लगा। लेकिन वो ये भी कहते हैं कि मुसाफ़िर कैफे के सुधा - चन्दर को भारती जी के सुधा - चंदर से जोड़ कर ना पढ़ा जाए। 

भारती जी के किरदारों के नाम उधार लेकर उनके पैर छूने के जैसा मानते हुए उनको गले लगाने की ख्वाहिश रखते हैं। कहते हैं अगर वो ज़िन्दा होते तो उनको गले लगाता और उनका पैर छु लेता।



दिव्य प्रकाश दुबे


 जहाँ से कहानी शुरू होती है...

 

क से कहानी 


"हम पहले कभी मिले हैं?" 

सुधा ने बच्चों जैसी शरारती मुस्कुराहट के साथ कहा, “शायद!" 

“शायद! कहाँ?" मैंने पूछा। 

सुधा बोली, “हो सकता है कि किसी किताब में मिले हों" 

"लोग कॉलेज में, ट्रेन में, फ्लाइट में, बस में, लिफ्ट में, होटल में, कैफे में तमाम जगहों पर कहीं भी मिल सकते हैं लेकिन किताब में कोई कैसे मिल सकता है?" मैंने पूछा।

         इस बार मेरी बात काटते हुए सुधा बोली, “दो मिनट के लिए मान लीजिए। हम किसी ऐसी किताब के किरदार हों जो अभी लिखी ही नहीं गई हो तो? 

         "ये सुनकर मैंने चाय के कप से एक लंबी चुस्की ली और कहा, “मजाक अच्छा कर लेती हैं आप!"



कहानी शादी के लिए एक कैफे में मिलने से शुरू होती है और शुधा और चंदर दो अलग अलग लडके लड़की से मिलकर बोर हो चुके हैं। जहां चंदर और सुधा के मिलने से पहले ही चंदर देखता है कि एक लड़की किसी लडके को डांट रही है जिससे वो पहले शादी के लिए मिली थी। फिर फोन करने पर मालूम होता है कि ये वही लड़की है जिस से चंदर मिलने आया है।


लड़की सुधा लॉयर है और चंदर सॉफ्टवेयर इंजीनियर। दोनों शादी के लिए मिलते हैं लेकिन बात इस तरह ख़त्म होती है कि दोनों अपनी-अपनी फैमिली को समझाएंगे कि वो शादी नहीं करना चाहते हैं और लंच साथ में इस लिए करते हैं कि कौन सा उम्र भर साथ खाना है। 


ये पढ़ना बहुत रोचक रहेगा कि कैसे एक दूसरे के साथ रहते हैं और जीते हैं और कैसे ये मुसाफ़िर कैफे बनता है। मुंबई के एक कॉफ़ी हाउस से शुरू होनेवाली कहानी मसूरी के मुसाफ़िर कैफ़े तक का रास्ता तय करती है। क्या है मुसाफ़िर कैफे, ये जानना भी बहुत रोचक रहेगा।


दिव्य प्रकाश दुबे


दुबे जी किताब की कहानी के लिए कहते हैं।

मुसाफ़िर कैफे की कहानी मेरे लिए वैसे ही है जैसे मैंने कोई सपना टुकड़ों-टुकड़ों में कई रातों तक देखा हो। एक दिन सारे अधूरे सपनों के टुकड़ों ने जुड़कर कोई शक्ल बना ली हो। उन टुकड़ों को मैंने वैसे ही पूरा किया है जैसे आसमान देखते हुए हम तारों से बनी हुई शक्लें पूरी करते है। हम शक्लों में खाली जगह अपने हिसाब से भरते हैं इसलिए दुनिया में किन्हीं भी दो लोगों को कभी एक-सा आसमान नहीं दिखता। हम सबको अपना अपना आसमान दिखता है।



इस किताब की कुछ बातें जो दिल को पसंद आयी।


"हम सभी की जिंदगी में कुछ ऐसी कहानियाँ होती है जिन्हें अगर हम न सुनाए तो पागल हो जाएंगे।"

"कहानियाँ कोई भी झूठ नहीं होतीं। या तो वो हो चुकी होती हैं या वो हो रही होती हैं या फिर वो होने वाली होती हैं।"

“पुरानी जगहों पर इसलिए भी जाते रहना चाहिए क्योंकि वहां पर हमारा पास्ट हमारे प्रेजेंट से आकर मिलता है लाइफ को रिवाइंड करके जीते चले जाना भी आगे बढ़ने का ही एक तरीका है"

“इंडिया में 90 % लड़के ऐसे सोचने में ही रह जाते हैं । वो कॉर्नर सीट की टिकट तो ले लेते हैं लेकिन कुछ कर नहीं पाते।”

“जिंदगी की मंजिल भटकना है कहीं पहुँचना नहीं।”


मेरी राय और रिकमेंडेशन रहेगा कि इसे एक बार ज़रूर पढ़े। इस किताब को अपने पुस्तकालय में जरूर जगह दें।




नोट:- इसमें समीक्षा में संलग्न दिव्य प्रकाश दुबे जी की सभी तस्वीरें इनकी ऑफिशियल फेसबुक पेज से ली गई हैं। और पोस्टर मेरे द्वारा है बनाया गया है।



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