'https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> src='https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> स'आदत हसन मंटो की ज़िन्दगी और एक लघु कथा।

आज सआदत हसन मंटो  की यौम ए पैदाइश है। (11 मई 1912 – 18 जनवरी 1955) 


सआदत हसन मंटो उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं, बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानीकार होने के साथ-साथ वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित किए।

कहानियों में अश्लीलता के आरोप की वजह से मंटो को छह बार अदालत जाना पड़ा था, जिसमें से तीन बार पाकिस्तान बनने से पहले और बनने के बाद, लेकिन एक भी बार मामला साबित नहीं हो पाया। इनके कुछ कार्यों का दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद किया गया है।

नंदिता दास द्वारा बनाई गई मंटो (2018 फ़िल्म) और नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी अभिनीत, एक बॉलीवुड फिल्म है जो मंटो के जीवन पर आधारित है।

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आज उन्हीं की लिखित एक लघु कथा नीचे पेश है। जिसका उनवान है मज़दूरी।


"मज़दूरी"

लूट खसूट का बाज़ार गर्म था। इस गर्मी में इज़ाफ़ा होगया। जब चारों तरफ़ आग भड़कने लगी। एक आदमी हारमोनियम की पेटी उठाए ख़ुश ख़ुश गाता जा रहा था...

'जब तुम ही गए परदेस लगा कर ठेस ओ पीतम प्यारा, दुनिया में कौन हमारा।'

एक छोटी उम्र का लड़का झोली में पापडों का अंबार डाले भागा जा रहा था... ठोकर लगी तो पापडों की एक गड्डी उसकी झोली में से गिर पड़ी। लड़का उसे उठाने के लिए झुका तो एक आदमी जो सर पर सिलाई की मशीन उठाए हुए था उससे कहा, “रहने दे बेटा रहने दे। अपने आप भुन जाऐंगे।”
बाज़ार में ढब से एक भरी हुई बोरी गिरी। एक शख़्स ने जल्दी से बढ़ कर अपने छुरे से उसका पेट चाक किया... आंतों के बजाय शक्कर, सफ़ेद सफ़ेद दानों वाली शक्कर उबल कर बाहर निकल आई। लोग जमा हो गए और अपनी झोलियां भरने लगे। एक आदमी कुर्ते के बगै़र था। उसने जल्दी से अपना तहबंद खोला और मुट्ठियाँ भर भर उसमें डालने लगा।
हट जाओ... हट जाओ... एक ताँगा ताज़ा ताज़ा रोग़न-शुदा अलमारियों से लदा हुआ गुज़र गया।

ऊंचे मकान की खिड़की में से मलमल का थान फड़फड़ाता हुआ बाहर निकला... शोले की ज़बान ने हौले से उसे चाटा... सड़क तक पहुंचा तो राख का ढेर था।

“पूं पूं... पूं पूं...” मोटर के हॉर्न की आवाज़ के साथ दो औरतों की चीख़ें भी थीं।

लोहे का एक सैफ़ दस पंद्रह आदमियों ने खींच कर बाहर निकाला और लाठियों की मदद से उसको खोलना शुरू किया।

काउ ऐंड गोट।” दूध के कई टीन दोनों हाथ पर उठाए अपनी ठोढ़ी से उनको सहारा दिए एक आदमी दुकान से बाहर निकला और आहिस्ता आहिस्ता बाज़ार में चलने लगा।

बुलंद आवाज़ आई, “आओ आओ लीमोनीड की बोतलें पियो... गर्मी का मौसम है।” गले में मोटर का टायर डाले हुए आदमी ने दो बोतलें लीं और शुक्रिया अदा किए बगै़र चल दिया।

एक आवाज़ आई, “कोई आग बुझाने वालों को तो इत्तिला दे दे… सारा माल जल जाएगा।” किसी ने इस मुफ़ीद मश्वरे की तरफ़ तवज्जो न दी।

लूट खसोट का बाज़ार इसी तरह गर्म रहा और इस गर्मी में चारों तरफ़ भड़कने वाली आग बदस्तूर इज़ाफ़ा करती रही। बहुत देर के बाद तड़तड़ की आवाज़ आई। गोलियां चलने लगीं।

पुलिस को बाज़ार ख़ाली नज़र आया… लेकिन दूर, धुएँ में मलफ़ूफ़ मोटर के पास एक आदमी का साया दिखाई दिया। पुलिस के सिपाही सीटियां बजाते उसकी तरफ़ लपके... साया तेज़ी से धुएँ के अंदर घुस गया। पुलिस के सिपाही भी उसके तआ'क़ुब में गए। धुएँ का इलाक़ा ख़त्म हुआ तो पुलिस के सिपाहियों ने देखा कि एक कश्मीरी मज़दूर पीठ पर वज़नी बोरी उठाए भागा चला जा रहा है। सीटियों के गले ख़ुश्क होगए मगर वो कश्मीरी मज़दूर न रुका। उसकी पीठ पर वज़न था। मा'मूली वज़न नहीं। एक भरी हुई बोरी थी लेकिन वो यूं दौड़ रहा था जैसे पीठ पर कुछ है ही नहीं।

सिपाही हांपने लगे। एक ने तंग आ कर पिस्तौल निकाला और दाग़ दिया। गोली कश्मीरी मज़दूर की पिंडली में लगी। बोरी उसकी पीठ पर से गिर पड़ी। घबरा कर उसने अपने पीछे आहिस्ता आहिस्ता भागते हुए सिपाहियों को देखा। पिंडली से बहते हुए ख़ून की तरफ़ भी उसने ग़ौर किया। लेकिन एक ही झटके से बोरी उठाई और पीठ पर डाल कर फिर भागने लगा।

सिपाहियों ने सोचा, “जाने दो जहन्नम में जाए।”
एक दम लंगड़ाता कश्मीरी मज़दूर लड़खड़ाया और गिर पड़ा। बोरी उसके ऊपर आ रही। सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और बोरी समेत ले गए। रास्ते में कश्मीरी मज़दूर ने बारहा कहा, “हज़रत, आप मुझे क्यूँ पकड़ती है... मैं तो ग़रीब आदमी होती... चावल की एक बोरी लेती... घर में खाती... आप नाहक़ मुझे गोली मारती।” लेकिन उसकी एक न सुनी गई।

थाने में भी कश्मीरी मज़दूर ने अपनी सफ़ाई में बहुत कुछ कहा। “हज़रत, दूसरा लोग बड़ा बड़ा माल उठाती... मैं तो फ़क़त एक चावल की बोरी लेती... हज़रत, मैं तो ग़रीब होती। हर रोज़ भात खाती।”

जब वो थक हार गया तो उसने अपनी मैली टोपी से माथे का पसीना पोंछा और चावलों की बोरी की तरफ़ हसरत भरी निगाहों से देख कर थानेदार के आगे हाथ फैला कर कहा, “अच्छा हज़रत, तुम बोरी अपने पास रख... मैं अपनी मज़दूरी मांगती... चार आने!"




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