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"याद''

आज जब उसकी याद अायी तो पूरा घर, घर क्या कि बस दो कमरे का मकान है, खंगाल लिया। थोड़ी ही देर की मेहनत से यादों के सबूत निकल आए।
उसकी यादों का सबूत मिला तो बस कुछ कागज़ के टुकड़े, एक कलम और एक हाथ की चूड़ी।

काग़ज़ के वो टुकड़े जिसपर उसके हाथो की लिखाई है, वो लिखाई, जो स्कूल के परीक्षा में चोरी के लिए लिखे गए सवालों के जवाबात। उन तीन कागज़ों पर लिखें एक एक शब्द मुझे ज़ुबानी याद हो आए हैं फिर भी उसे देखता हूं।
 जब उन कागज़ों के शब्दों को देखता हूं तो उसका एक धुंधला चेहरा बनता है जिसपर, कहीं 'अ' की मात्रा होती है तो कहीं ' इ' की मात्रा, और ऐसे ही कभी उसका नाम लिखा दिख जाता है तो कभी उसकी बातें, जो मैं उसके आस-पास बैठ कर ऐसे सुना करता था कि उसे पता न चले, जो मुमकिन नहीं था, उसने मुझे इसी भरम में रहने दिया कि उसकी बातें मैंने कभी सुनी ही नहीं।
बातें, बातें ही तो याद आती हैं, वैसी बातें जो कभी मुझसे नहीं हुई, शायद कभी मेरे लिए हुई हों लेकिन उन बातों में मेरा नाम शायद के साथ आता था। शायद, वो शब्द जो उम्मीद देता है और उम्मीद इंतज़ार। इंतज़ार आज भी कर रहा हूं।

 उसका दिया हुआ क़लम मिला, जो मैंने उससे ये कह कर मांगा था कि मेरे कलम की स्याही ख़तम हो गई है लेकिन स्याही ख़तम नहीं हूवी थी, ये बात वो भी जानती थी।
उस क़लम को देखा तो उसका वो मुस्कुराना भी याद आया जब उसने कलम देते वक़्त एक बार नहीं देने का नाटक किया था और मुस्कुरा दिया। कुछ कहने के लिए खुलते और बिना कहे फिर एक दूसरे से चिपकते उसके होंठ भी याद आए। कुछ बोला नहीं उसने, कुछ कहते कहते चुप हो गई। उस समय ही मैंने महबूब की होंठो की नज़ाकत समझा था कि क्यों कोई आशिक किसी के प्यार में महबूबा की होंठो की नज़ाकत महसूस करने की ख्वाहिश रखता है।

वो कलम जिसे सामने रख कर हज़ारों पन्नों पर करोड़ों दफा उसका नाम लिखा, वो कलम कभी लिखने के लिए इस्तेमाल नहीं किया सिर्फ इस डर से कि कहीं उसकी स्याही ख़तम न हो जाए।

और एक वो चूड़ी जिसके साथ यादें तो ऐसी जुड़ी हैं जैसे जिस्म से रूह। क्यों?
क्योंकि उसके बाद सबसे ज़्यादा उसे महसूस कर पाता हूं तो इसी एक चूड़ी में, इसके छूने भर से पूरे जिस्म में एक सिरहन ऐसे दौड़ जाती है जैसे उसे छूने से दौड़ जाती थी। उसके मेरे साथ नहीं होने के बाद भी यही उसके होने की एहसास दिलाती है।
एहसास यकीन से पैदा होता है और यकीन नज़रबंद जादू है और ये जादू इस चूड़ी में छुपी है। यादें भी छुपी हूवी ही हैं। हर पहर में, हर वक़्त में, हर काग़ज़ में, हर अक्षर में, हर शब्द में, हर सुबह_व_शाम में, और मेरे नाम में।

मेरे नाम में ऐसे कि, जब भी मैं महसूस करना चाहँ, ये महसूस कर पाता हूँ कि उसने मेरा नाम पुकारा। फिर पलट कर देखता हूँ तो ये समझ आता है कि यादें तो बस यादें होती हैं जिनका हकीकत से कोई वास्ता नहीं। वो यादों का उलझन ऐसे ही टूट जाता है जैसे आसमान से तारा टूटता है और थोड़ी ही दूर पर ऐसे गायब हो जाता है जैसे वहाँ कुछ हुआ ही नहीं। वहाँ कुछ था ही नहीं।

~"अहमद"

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