'https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> src='https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> "मुल्क़"
"मुल्क़"

मेरा दिल बहुत घबराता है,
जब बात वफ़ा की आती है।

मैं वफ़ा मुल्क़ से करता हूँ,
हर बार ये साबित करता हूँ।

क्यों मुल्क़ परस्ती मुझको ही,
हर वक़्त दिखाना पड़ता है।

लोग, क्यों नहीं समझते हैं,
ये बीज सयासत बोती है।

जब दुनिया जागते सोती है,
तब हार वफ़ा की होती है।

चलो एक सवाल मैं करता हूँ,
तुम नफ़रत क्यों फैलाते हो?

तुम कहते हो मुहाफिज़ हो,
फिर क़ातिल क्यों बन जाते हो?

गर क़ातिल ही मुहाफिज़ है,
फिर इन्सानियत को ख़तरा है।

जो नफ़रत को फैलता है,
सबसे, बुरा वो चेहरा है।

मेरी तुमसे एक गुज़ारिश है,
नफ़रत मत फैलाओ तुम।

मान लो मेरी बात को दोस्त,
मुल्क को मत जलाओ तुम।

चलो, कुछ ऐसा हम काम करें,
कभी किसी की ना हार हो।

हिंदू मुस्लिम सिख़ ईसाई,
सबको सबसे प्यार हो।

~"अहमद"

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