'https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> src='https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js'/> "खुशियों का सौदागर"

"खुशियों का सौदागर"



मेला, माने बच्चे, झूला, खिलौने, खुशियां, पापा, पापा का कंधा, धूम धड़ाका, और बचपन की याद।
लेकिन अफसोस कि ये सबके लिए नहीं है, कुछ बच्चे हैं जो मेले में अपने बचपन का बोझ लिए जाते हैं, पापा के कंधो पर बैठ कर नहीं, बल्कि अपने कंधों पर घर की जिम्मेदारियों को लेकर जाते हैं।

झूला झूलते नहीं हैं बल्कि दूसरों को झुलाते हैं, या अपने खिलौने बेचते हुवे दूसरे बच्चों को अपनी बेबस नज़रों से झूलते देखते हैं लेकिन उनकी आंखों में अफसोस नहीं होता क्यों कि घर की गरीबी और ज़िम्मेदारियां उनके वजूद से ये अहसास ही ख़तम कर देती है।

खिलौनों से वो खेलते नहीं हैं और ना ही उन्हें खरीदते हैं बल्कि बेचते हैं एक ज़िम्मेदारी समझ कर।
खुशियां उन्हें मिलती नहीं है वो बाटतें हैं पूरे मेले में घूम कर और ख़ुश होते हैं चंद पैसे अपनी ज़ेब में पा कर, वो कुछ पल की खुशियां बेचते हैं पैसों से।

किसी के पापा नहीं होते हैं साथ, तो किसी के पापा के कंधे उनके लिए खाली नहीं होते, वो दूसरे बच्चों को देख के अपने भी बाप का चेहरा देखते हैं तब शायद उन्हें अपनी हालात पर अफसोस होता है, लेकिन मेले की भीड़ में उनकी आंखों में या उनके चेहरे पर किसी को बचपन दिखता ही नहीं और अगर किसी को दिख भी जाए तो वो आगे बढ़ जाते हैं, उनके लिए ये बच्चे, बच्चे नहीं, बल्कि ये सौदागर है जो इस मेले में सौदा ले कर आया है,
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बचपन तो कब का कहीं मिट्टी में, शाम का खाना जुटाने में, अपने सिर पर एक टूटी फूटी छत बनाने में और अपने भविष्य को नाश होते देखते हुवे खो गया है।

फिर भी मेला ख़त्म होने तक वो अपने चिल्लर और पैसे गिनते हुवे, मुस्कुराता आगे बढ़ जाता है ये सोच कर कि शायद भविष्य के किसी दूसरे मेले में उसे कुछ दूसरे बच्चों की तरह ले जाया जाएगा, और अगर वो नहीं जा सका तो खुशियां बेचने तो जाएगा ही।


~"अहमद"
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