"दिल्ली जामा मस्जिद"
कुछ दिनों पहले दिल्ली की दहलीज़ पर कदम रखा, दिल्ली पहुंचा तो दिल्ली की बहुत पुरानी और तारीख़ी मस्जिद "दिल्ली जामा मस्जिद" भी जाना हुआ, और वो अंग्रेज़ी साल का पहला दिन था, 1 जनवरी।
मस्जिद की ज़्यारत करके बहुत ख़ुशी हुई लेकिन दुख भी हुआ वहां पहुंचे हुवे लोगों को देख कर और इतने लोगों की हुजूम से बने मंज़र और माहौल को देख कर।
जब मैं बस से उतरा तो दूर एक बहुत बड़ी मस्जिद उची टीले पर बनी सी दिखी, लेकिन इस सड़क से मस्जिद की सीढ़ी तक पहुंचने में एक मेले से होकर गुजरना पड़ा, क्युकी यहां पहुंचे लोगों के लिए छोटी छोटी दुकानें लगीं थीं, ये बाज़ार एक मेले की शक्ल ले रखा था, जामा मस्जिद की सीढ़ियों से लेकर नीचे तक और बड़ी सड़क तक लगा हुजूम बेवजह का दिख रहा था।
हैरानी तब हुवी जब मुझे पूछने से पता चला कि ये दुकानें मन मर्ज़ी की हैं, और पुलिस आती है तब ये अपनी दुकानें उठा कर चलते बनते हैं।
एक हद और दायरे तक देखा जाए तो ये सही है क्युकी हो सकता है इन छोटी छोटी दुकानों से कई सारे घरों के चूल्हे जलते हों, लेकिन जब मैं मस्जिद की सीढ़ियां चढ़ने लगा तब मैं और भी ज़्यादा हैरान और परेशान हुआ क्यों कि गैर मज़हब और इस्लामिक औरतें ( हालां कि पहचानना बड़ा मुश्किल था) बहुत ही बेहयाई से अपने जिस्मों की नुमाईश करते हुवे, सीढ़ियां चढ़ती दिख रहीं थीं।
और ये सभी मस्जिद के सहन में दाखिल हो कर मस्जिद के हर कोने के साथ अपनी तस्वीरें बनाती दिख रहीं थीं। यहां सिर्फ औरतें नहीं उनके साथ मर्द भी थें।
मैं ये नहीं कहता कि किसी भी मस्जिद में गैर इस्लामिक औरतों या मर्दों को ज़्यारत करने से रोक देना चाहिए लेकिन ऐसा कुछ ज़रूर करना चाहिए ताकि ऐसी पाकगाहों पर पहुंच कर लोग कुछ इबरत हासिल करके जाएं, चाहे वह इस्लाम पर ईमान रखतें हों या फिर वो गैर इस्लामिक हों।
मैं ख़ुद को ज़लिल तब और महसूस करने लगा था जब "आज़ान" हूवी, और किसी को कुछ भी फ़र्क नहीं पढ़ा, सब वैसे ही अपने जूते चप्पलों को हाथों में लिए सहन में घूमते रहें और तस्वीरें बनाते रहें।
हद तो तब हो गई जब इन सब से मस्जिद आएं नमज़ियों को परेशानी सहनी पड़ी।
बहुत मुमकिन है कि ये मजमा हर रोज़ नहीं होता होगा या फिर इस मजमे में बहुत ज़्यादा ऐसे लोग हों जिन्हें इबादतगाहों की कदरखानी नहीं मालूम हो, लेकिन ये पूरी ज़िम्मेदारी मस्जिद के कमिटी मेंबरान और ज़िम्मेदारों की होनी चाहिए कि वो ऐसी हालातों में बहुत ही आसानी से लोगों को सहूलियत पहुंचकर उनको ज़्यारत करवाई जाए और जाने अनजाने लोगों तक अपने मज़हब की ख़ूबसूरती को पेश किया जाए।
दिल्ली की जामा मस्जिद बहुत ही पुरानी और तारीख़ी जगह है तो ये लाज़िमी है कि अलग अलग जगहों से लोग इसकी ज़्यारत को आएंगे ही, तब उनकी इस्तकबाल की ज़िम्मेदारी कमिटी मेंबरान की होनी चाहिए और ये बहुत ही अच्छा मौका है कि हम इसी जगह से लोगों तक इस्लाम की ख़ुशबू और इस्लाम की तहज़ीब आने वाले लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करें।
~"अहमद"
कुछ दिनों पहले दिल्ली की दहलीज़ पर कदम रखा, दिल्ली पहुंचा तो दिल्ली की बहुत पुरानी और तारीख़ी मस्जिद "दिल्ली जामा मस्जिद" भी जाना हुआ, और वो अंग्रेज़ी साल का पहला दिन था, 1 जनवरी।
मस्जिद की ज़्यारत करके बहुत ख़ुशी हुई लेकिन दुख भी हुआ वहां पहुंचे हुवे लोगों को देख कर और इतने लोगों की हुजूम से बने मंज़र और माहौल को देख कर।
जब मैं बस से उतरा तो दूर एक बहुत बड़ी मस्जिद उची टीले पर बनी सी दिखी, लेकिन इस सड़क से मस्जिद की सीढ़ी तक पहुंचने में एक मेले से होकर गुजरना पड़ा, क्युकी यहां पहुंचे लोगों के लिए छोटी छोटी दुकानें लगीं थीं, ये बाज़ार एक मेले की शक्ल ले रखा था, जामा मस्जिद की सीढ़ियों से लेकर नीचे तक और बड़ी सड़क तक लगा हुजूम बेवजह का दिख रहा था।
हैरानी तब हुवी जब मुझे पूछने से पता चला कि ये दुकानें मन मर्ज़ी की हैं, और पुलिस आती है तब ये अपनी दुकानें उठा कर चलते बनते हैं।
एक हद और दायरे तक देखा जाए तो ये सही है क्युकी हो सकता है इन छोटी छोटी दुकानों से कई सारे घरों के चूल्हे जलते हों, लेकिन जब मैं मस्जिद की सीढ़ियां चढ़ने लगा तब मैं और भी ज़्यादा हैरान और परेशान हुआ क्यों कि गैर मज़हब और इस्लामिक औरतें ( हालां कि पहचानना बड़ा मुश्किल था) बहुत ही बेहयाई से अपने जिस्मों की नुमाईश करते हुवे, सीढ़ियां चढ़ती दिख रहीं थीं।
और ये सभी मस्जिद के सहन में दाखिल हो कर मस्जिद के हर कोने के साथ अपनी तस्वीरें बनाती दिख रहीं थीं। यहां सिर्फ औरतें नहीं उनके साथ मर्द भी थें।
मैं ये नहीं कहता कि किसी भी मस्जिद में गैर इस्लामिक औरतों या मर्दों को ज़्यारत करने से रोक देना चाहिए लेकिन ऐसा कुछ ज़रूर करना चाहिए ताकि ऐसी पाकगाहों पर पहुंच कर लोग कुछ इबरत हासिल करके जाएं, चाहे वह इस्लाम पर ईमान रखतें हों या फिर वो गैर इस्लामिक हों।
मैं ख़ुद को ज़लिल तब और महसूस करने लगा था जब "आज़ान" हूवी, और किसी को कुछ भी फ़र्क नहीं पढ़ा, सब वैसे ही अपने जूते चप्पलों को हाथों में लिए सहन में घूमते रहें और तस्वीरें बनाते रहें।
हद तो तब हो गई जब इन सब से मस्जिद आएं नमज़ियों को परेशानी सहनी पड़ी।
बहुत मुमकिन है कि ये मजमा हर रोज़ नहीं होता होगा या फिर इस मजमे में बहुत ज़्यादा ऐसे लोग हों जिन्हें इबादतगाहों की कदरखानी नहीं मालूम हो, लेकिन ये पूरी ज़िम्मेदारी मस्जिद के कमिटी मेंबरान और ज़िम्मेदारों की होनी चाहिए कि वो ऐसी हालातों में बहुत ही आसानी से लोगों को सहूलियत पहुंचकर उनको ज़्यारत करवाई जाए और जाने अनजाने लोगों तक अपने मज़हब की ख़ूबसूरती को पेश किया जाए।
दिल्ली की जामा मस्जिद बहुत ही पुरानी और तारीख़ी जगह है तो ये लाज़िमी है कि अलग अलग जगहों से लोग इसकी ज़्यारत को आएंगे ही, तब उनकी इस्तकबाल की ज़िम्मेदारी कमिटी मेंबरान की होनी चाहिए और ये बहुत ही अच्छा मौका है कि हम इसी जगह से लोगों तक इस्लाम की ख़ुशबू और इस्लाम की तहज़ीब आने वाले लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करें।
~"अहमद"
Yes .aaj ki tarikh me ye Sach hai ...aj k jamane me log sirf social media par apne apko styles or behtar banne me Jude hai..jabki haiqat kuch or hi hai
ReplyDeleteजी साहब, एक कोशिश थी मेरी ये कहने की, बताने की।
Deleteआप तक पहुंची है बात, ख़ुशी हुई,
प्रेम पहुंचे।
दोस्तों को भी बताइएगा।
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