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"इबादत"


कभी कभी दुनिया इतनी बुरी बन कर सामने से चली आती है कि मैं सोचता हूं कि इनसे छिप जाऊं, बचकर कहीं ऐसी जगह चला जाऊं जहां अकेले ख़ुद के सिवा कोई दूसरा नहीं हो, और अगर हो तो वो सिर्फ़ प्रकृति हो,

वो जो भी सवाल करे, उसे उसका जवाब ख़ुद ढूंढ़ना पड़े, वो जो भी जवाब चाहे हासिल कर ले। वो ऐसे सवाल करे जो इसका जवाब दुनिया अच्छा मांगती है और वो हमेशा गलत ही जवाब देता आया हो।

कभी कभी मैं ये सोचता हूं कि इस दुनियां में कोई मज़हब, कोई जात, कोई धर्म और धर्म का प्रचारक नहीं होता तो दुनियां कैसे चलती, यहां के लोग  किसी की इबादत किए बिना ही रह लेते, किसी ख़ुदा में अपनी आस्था नहीं रखते ??
तब फिर किस ख़ुदा की इबादत करते?
 या कहीं ऐसा तो नहीं होता के जो समाज में अच्छी जगह रखता हो वहीं ख़ुदा बन जाता?

लोगों को मजबूरन उस ख़ुदा की इबादत करनी पड़ती जो झूठा ख़ुदा है, या फिर लोग उस ख़ुदा की इबादत करते करते, समाज में उससे ज्यादा अंची और अच्छी जगह बनाने के लिए जद्दोजहद करते फिरते?
आख़िर क्या होता?

जो अगर इस जगह तक पहुंच जाता, और जब लोग उसकी इबादत करने लगते और फिर उसकी जगह कोई और आ जाता तो यह कैसे दिल से उसकी इबादत करता?
जो पहले कभी इसके सामने सिर झुकाता था, उसके सामने सिर झुकाने में, वो क्या महसूस करता? क्या वो उसकी इबादत दिल से करता?



~ "अहमद"

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