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"सुबह से शाम तक"


कल शादी की सालगिरह है, मेरी नहीं, उसकी।
कल, मतलब कि कल ही की तारीख़ में मेरे और उसके रिश्तों के सारे हिस्से मिटा दिए गए, कल ही की तारीख़ में मुझे उसकी दिल की दहलीज तक जाने को नजायज़ करार दे दिया गया, और नजायज़ करार दे दिया गया मेरे उससे मिलने, या फिर उससे किसी भी तरह की ता'अल्लुकत को,
बच गई तो सिर्फ़ यादें।

मैंने उसको निभाने में हर जायज़ कोशिश की। वो मेरी ज़िन्दगी की खूबसूरत सी ख़्वाब बन कर रह गई जो अब कभी पूरी नहीं हो सकती।
यादें बहुत कटीली और तकलीफदेह होती हैं जो वक़्त के साथ साथ चुभती रहती हैं। मैंने यादों को मिटाने की हर जायज़ कोशिश की।

     मैंने मेरी जगह बदल ली लेकिन सुबह नहीं बदल सका,
मैंने अपना शहर बदल लिया, लेकिन उस शहर की दोपहर नहीं बदल सका।
आखिर में मैंने अपना नाम बदल लिया लेकिन हर जगह शाम एक सी ही होती हैं।

सुबह:- हर सुबह उसके साथ गुज़ारे गए वक़्त की यादें सबा के साथ मेरे बिस्तर पर आ कर लेट जाती, बिस्तर की सिलवटें, मुझे उसकी यादों में फिर से डूबा देती।

दोपहर:- हर दिन की दोपहरी एक काली रात की तरह काटने दौड़ती क्युकि किसी भी शहर की दोपहर एक सी ही होती है, और किसी न किसी दोपहरी में हमारे मिलने की याद, आज कल हर दोपहर के साथ आ जा जाती है।

शाम:- नाम बदल लिया, क्योंकि जब भी कोई मुझे मेरे इस नाम से पुकारता तब मुझे उसकी याद आती, ऐसे जैसे कि उसी ने पुकारा हो, नाम बदल देने से किसी भी शहर की शाम नहीं बदलती।


हर शाम का ढलता सूरज मुझे मेरे रिश्ते के कमज़ोर होने और ढलने की याद दिलाता है और यादें चुभती हैं।
अब मैंने हर दर्द, हर चुभन को सहना सीख कर उसे अपना साथी बना लिया है, इसलिए कि शायद वो भी ज़िन्दगी के किसी न किसी लम्हात में ऐसे ही दर्द और चुभन को महसूस कर रही होगी, नहीं तो शायद करेगी, और ये मुझे कभी मंज़ूर नहीं होगा।
         
      ~"अहमद"
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