डिजाइन: गुलशेर अहमद |
किताब :- "गुनाहों का देवता"
लेखक:- धर्मवीर भारती
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली - 110003
मूल्य: 200/-
ISBN: 978-93-263-5002-4
डॉ० धर्मवीर भारती |
धर्मवीर भारती जी लिखित गुनाहों का देवता अभी अभी ख़त्म किया। किताब का आख़री पन्ना पढ़ते हुए आँखों से एक आँसु किताब के पन्ने पर गिरा तो लगा कि काश मैं एक बार इसके किसी एक किरदार से मिल लेता।
शायद ये बहुत पहले पढ़ लेना चाहिए था।
सत्य उसे मिलता है जिसकी आत्मा शांत और गहरी होती है समुन्द्र की गहराई की तरह। समुन्द्र की उपरी सतह की तरह जो विक्षुब्ध और तूफानी होता है, उसके अन्तर्व्दन्व्द में चाहे कितनी गरज हो लेकिन सत्य की शांत अमृत मयी आवाज़ नहीं होती।
~किताब से
धर्मवीर भारती
बहुचर्चित लेखक एवं सम्पादक डॉ० धर्मवीर भारती 25 दिसम्बर, 1926 को इलाहाबाद में जन्में और वहीं शिक्षा प्राप्त कर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करने लगे। इसी दौरान कई पत्रिकाओं से भी जुड़े। अन्त में 'धर्मयुग' के सम्पादक के रूप में गम्भीर पत्रकारिता का एक मानक निर्धारित किया। डॉ० धर्मवीर भारती बहुमुखी प्रतिभा के लेखक थे । कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध, आलोचन, अनुवाद, रिपोर्ताज़ आदि विधाओं को उनकी लेखनी से बहुत कुछ मिला है ।
उनकी कृतियाँ हैं: साँस की कलम से, मेरी वाणी गैरिक वसना, कनुप्रिया, सात गीत-वर्ष, ठण्डा लोहा, सपना अभी भी, सूरज का सातवाँ घोड़ा, बन्द गली का आखिरी मकान, पश्यन्ती, कहनी अनकहनी, शब्दिता, अन्धा युग, मानव-मूल्य और साहित्य और गुनाहों का देवता। भारती जी 'पद्मश्री' की उपाधि के साथ ही 'व्यास सम्मान' एवं अन्य कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से अलंकृत 4 सितम्बर , 1997 को मुम्बई में देहावसान।
ये किताब मध्वर्गीय परिवार की ऐसी कहानी है जो सीधे दिलों तक जाती है। चन्दर और सुधा, बिनती और पम्मी बहुत ही प्रेम किरदार रहे हैं। प्रेम, स्नेह, दुलार, प्यार, सहयोग, शरारत, और वो सारी भावनाओं का संयोग और सन्योजन है। धैर्य और अधैर्य और दृढ़ता का सामंजस्य स्थापित किया गया है। प्रेम की साधना और फिर प्रेम और वासना को एक सिक्के का दो पहलू बतलाना। अविश्वसनीय।
कहानी तीन मुख्या किरदारों के इर्द गिर्द ही घूमती हैं। यह है सुधा, चन्दर और पम्मी। प्रेम, समर्पण और समाज के बंधनो की कहानी है गुनाहो का देवता। साधारण भाषा में लिखी गयी यह पुस्तक समाज का दर्पण दिखती है। लेखक ने इतने सरल दृष्टान्त बनाये हैं कि किरदारों से एक जुड़ाव सा महसूस होने लगता है।
कहानी की रूप रेखा ऐसी बुनी गई है कि ऐसे लगती है जैसे यहीं की, अपने आस पास की कहानी हो। ऐसा लग रहा है कि अपने घर के आस पास ही , मुहल्ले के किसी घर की कहानी है।
भारती जी उपन्यास के नए संस्करण के लिए लेख में कहते हैं।
इस उपन्यास के नये संस्करण पर दो शब्द लिखते समय मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि क्या लिखू? अधिक-से अधिक मैं अपनी हार्दिक कृतज्ञता उन सभी पाठकों के प्रति व्यक्त कर सकता हूँ जिन्होंने इसकी कलात्मक अपरिपक्वता के बावजूद इसको पसन्द किया है। मेरे लिए इस उपन्यास का लिखना वैसा ही रहा है जैसा पीड़ा के क्षणों में पूरी आस्था से प्रार्थना करना, और इस समय भी मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं वह प्रार्थना मन-ही-मन दोहरा रहा हूँ, बस...
-धर्मवीर भारती
भारती जी के इस उपन्यास का ये 2020 में छिहात्तरवाँ संस्करण छपा है।
किताब काफी मजेदार है और लेखक व्यंग्य करने का कोई मौका नहीं छोड़ता।
“कोई प्रेमी हैं, या कोई फिलोसोफर हैं, देखा ठाकुर?”
“नहीं यार, दोनों से निकृष्ट कोटि के जीव हैं – ये कवि हैं. में इन्हें जानता हूँ. ये रविंद्र बिसरिया हैं. ऍम ए में पढता हैं. आओ मिलाये तुम्हे!”
कहानी काफी साधारण हैं। चन्दर एक गरीब परिवार से हैं और डॉ. शुक्ला उसे अपना लेते हैं। शुक्ला जी की लड़की हैं सुधा। चन्दर का शुक्ला जी के घर बे रोक टोक आना जाना रहता हैं। सुधा और उसके बीच काफी हसी ढिंढोली चलती रहती हैं। चन्दर अपनी रिसर्च मैं व्यस्त रहता हैं और बीच बीच मै डॉ. शुक्ला के संग उनके कार्यक्रम मैं जाता हैं। शुक्ला जी ने चन्दर का करियर बनाने का जिम्मा अपने सिर पर ले लिया था और उसका मार्ग दरशन करते रहते थे।
चन्दर की लाचारी इन वाक्यों से ही झलकती है :
“कुछ नहीं बिनती! तुम कहती हो, सुधा को इतने अन्तर पर मैंने रखा तो मैं देवता हूँ! सुधा कहती है, मैंने अन्तर पर रखा, मैंने पाप किया! जाने क्या किया है मैंने? क्या मुझे कम तकलीफ है? मेरा जीवन आजकल किस तरह घायल हो गया है, मैं जानता हूँ। एक पल मुझे आराम नहीं मिलता। क्या उतनी सजा काफी नहीं थी जो सुधा को भी किस्मत यह दण्ड दे रही है? मुझी को सभी बचैनी और दु:ख मिल जाता। सुधा को मेरे पाप का दण्ड क्यों मिल रहा है?”
सुधा कहती है कि,
"गलत मत समझो चन्दर! मैं जानती हूँ कि मैं तुम्हारे लिए राखी के सूत से भी ज्यादा पवित्र रही हूँ लेकिन मैं जैसी हूँ, मुझे वैसी ही क्यों नहीं रहने देते! मैं किसी से शादी नहीं करूँगी। मैं पापा के पास रहूँगी। शादी को मेरा मन नहीं कहता, मैं क्यों करूँ? तुम गुस्सा मत हो, दुखी मत हो, तुम आज्ञा दोगे तो मैं कुछ भी कर सकती हूँ, लेकिन हत्या करने से पहले यह तो देख लो कि मेरे हृदय में क्या है?"
डॉ० धर्मवीर भारती |
इस किताब की कुछ बातें जो दिल को पसंद आयी।
एक क्षण आता है कि आदमी प्यार से विद्रोह कर चुका है, अपने जीवन को प्रेरणा मूर्ति की गोद से बहुत दिन तक निर्वासित रह चुका है, उसका मन पागल हो उठता है फिर से प्यार करने को, बेहद प्यार करने को, अपने मन का दुलार फूलों को तरह बिखरा देने को।
समाज के सभी स्तम्भों का स्थान अपना अलग होता है। अगर सभी मन्दिर के कंगूरे का फूल बनने की कोशिश करने लगें तो नींव की ईंट और सीढ़ी का पत्थर कौन बनेगा? और वह जानता था कि अर्थशास्त्र वह पत्थर है जिस पर समाज के सारे भवन का बोझ है।
जब मन में प्यार जाग जाता है तो प्यार की किरण बादलों में छिप जाती है।
औरत अपने प्रति आने वाले प्यार और आकर्षण को समझने में चाहे एक बार भूल कर जाये, लेकिन वह अपने प्रति आने वाली उदासी और उपेक्षा को पहचानने में कभी भूल नहीं करती। वह होठों पर होठों के स्पर्शों के गूढ़तम अर्थ समझ सकती है, वह आपके स्पर्श में आपकी नसों से चलती हुई भावना पहचान सकती है, वह आपके वक्ष से सिर टिकाकर आपके दिल की धड़कनों की भाषा समझ सकती है, यदि उसे थोड़ा-सा भी अनुभव है और आप उसके हाथ पर हाथ रखते हैं तो स्पर्श की अनुभूति से ही जान जाएगी कि आप उससे कोई प्रश्न कर रहे हैं, कोई याचना कर रहे हैं, सान्त्वना दे रहे हैं या सान्त्वना माँग रहे हैं। क्षमा माँग रहे हैं या क्षमा दे रहे हैं, प्यार का प्रारम्भ कर रहे हैं या समाप्त कर रहे हैं। स्वागत कर रहे हैं या विदा दे रहे हैं। यह पुलक का स्पर्श है या उदासी का चाव और नशे का स्पर्श है या खिन्नता और बेमनी का।
पूरी पुस्तक में संवाद सराहनीय हैं। प्रेम की अलग अलग परिस्थितयों के द्योतक हैं और उन स्थितियों का मानसिक विश्लेषण भी करते हैं। एक मध्यम वर्ग की दुविधाओं को भारती जी ने अपनी कलम के माध्यम से बहुत ही खूबसूरती से कागज पर उकेरा है। घटनाओं का चुनाव बहुत ही सावधानी से किया गया है।
मैं जब ये पुस्तक पढ़ रहा था और जब ख़त्म किया तब लगा कि शायद इस मुझे बहुत पहले ही पढ़ लेना है।
नोट: इस ब्लॉग में संलग्न चित्र इंटरनेट से लिए गए हैं।
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