शाहनवाज़ आलम "मुज़िर" |
बहुत दिनों से उनका ख़्याल ज़ेहन में ऐसे उतार आया था जैसे सर्दी में पहाड़ों पर बर्फ उतर आता है। यादों की यही तो एक बात है कि बिना बात के याद आ जाती है। उसी ख्यालों के अन बन में बुना गया ये एक ग़ज़ल आपकी खिदमत में पेश है।
मुलाहिजा फरमाएं, गलतियों की बहुत गुंजाइश है तो बिलकुल खुले दिल से आपकी किमती और अनमोल अल्फाजों का इस्तकबाल है।
हमारी मुहब्बत की शुरुआत भी प्यारी थी,
उनसे हुई पहली मुलाक़ात भी प्यारी थी।
उनकी तारीफ क्या करें, बस ये समझ लो,
उनकी की, गई हर एक बात भी प्यारी थी।
तारीक रातें भी चाँद के साए में गुजरीं,
उनके साथ जो गुजरी, वह रात भी प्यारी थी।
उनकी गूफ्तगू का अंदाज़ देखो कितना प्यारा था,
उनका लहज़ा प्यारा, उनकी नग़मात भी प्यारी थी।
जो अचानक बादल बरस पड़े, परेशानी होती है,
मगर हम साथ थे, आई वह बरसात भी प्यारी थी।
मुज़िर
GAJAB BHAI,, GAJAB
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